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जातिगत जनगणना: समाज के लिए वरदान या विभाजन की नई रेखा?

जातिगत जनगणना: समाज के लिए वरदान या विभाजन की नई रेखा?

भारत में जातिगत जनगणना का मुद्दा हाल के वर्षों में फिर से चर्चा का केंद्र बना है। राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के बीच इस पर विभिन्न मत हैं। कोई इसे वंचित वर्गों की सहायता के लिए आवश्यक मानता है, तो कोई इसे समाज में विभाजन को बढ़ाने वाला कदम मानता है। इस लेख में, हम जातिगत जनगणना के इतिहास, इसके पक्ष और विपक्ष, और इससे जुड़े तर्क-वितर्क का विश्लेषण करेंगे।

जातिगत जनगणना: 

भारत में जनगणना की शुरुआत ब्रिटिश शासन के दौरान हुई थी। 1872 से लेकर 1931 तक की जनगणना में जाति-आधारित आंकड़ों को दर्ज किया जाता था। इसके बाद, आजाद भारत की पहली जनगणना (1951) में केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लोगों को वर्गीकृत किया गया। यह कदम सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उठाया गया था। 2011 में, यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक-जातिगत जनगणना करवाई थी, लेकिन इसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए।

जातिगत जनगणना के फायदे और नुकसान

फायदे:

  1. वंचित वर्गों की पहचान: जातिगत जनगणना से देश में वंचित और हाशिए पर खड़े वर्गों की सटीक पहचान हो सकेगी। इससे सरकार को इन वर्गों के लिए विशेष योजनाएँ बनाने और उन्हें बेहतर तरीके से सहायता प्रदान करने में मदद मिलेगी।
  2. योजनाओं की बेहतर योजना: जनगणना के आंकड़े सरकार को सभी वर्गों के विकास के लिए अधिक सटीक और समावेशी योजनाएँ बनाने में मदद करेंगे। यह डेटा विभिन्न सरकारी योजनाओं को सही दिशा में ले जाने में सहायक होगा।
  3. सामाजिक समानता: जातिगत जनगणना से समाज में फैली असमानताओं को दूर करने में सहायता मिल सकती है। इससे सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकते हैं।

नुकसान:

  1. जातिगत राजनीति: कुछ लोगों का मानना है कि जातिगत जनगणना से जातिगत राजनीति को बढ़ावा मिलेगा, जिससे राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए जाति-आधारित विभाजन को भुना सकते हैं।
  2. सामाजिक विभाजन: जातिगत जनगणना से समाज में जातिगत विभाजन बढ़ सकता है। इससे सामाजिक एकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
  3. गोपनीयता का उल्लंघन: कई लोग मानते हैं कि जातिगत जनगणना से लोगों की निजता का उल्लंघन हो सकता है। इससे व्यक्तिगत जानकारी सार्वजनिक होने का खतरा भी हो सकता है।

जातिगत जनगणना: तर्क और विवाद

जातिगत जनगणना के समर्थक यह तर्क देते हैं कि इससे समाज के वंचित वर्गों की स्थिति को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। उनका मानना है कि इससे सामाजिक असमानता को दूर करने में सहायता मिलेगी और इन वर्गों को नीति-निर्माण में उचित प्रतिनिधित्व मिल सकेगा।

हालांकि, विरोधियों का तर्क है कि जातिगत जनगणना से जातिगत राजनीति को बढ़ावा मिलेगा और यह समाज में विभाजन का कारण बनेगा। इसके अलावा, वे यह भी कहते हैं कि इस जनगणना के आंकड़े गलत या अपूर्ण हो सकते हैं, जिससे नीति-निर्माण में कठिनाई आ सकती है। गोपनीयता के उल्लंघन का खतरा भी इस बहस का एक महत्वपूर्ण पहलू है।

सावधानीपूर्वक विचार की आवश्यकता

जातिगत जनगणना एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा है, जिसके पक्ष और विपक्ष दोनों में मजबूत तर्क हैं। सरकार को इस मुद्दे पर निर्णय लेते समय सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए। इसके साथ ही, जनता की राय और सामाजिक प्रभाव का भी गहन अध्ययन किया जाना चाहिए ताकि कोई भी निर्णय समाज के व्यापक हित में लिया जा सके।

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