मनुष्य का जीवन जन्म और मृत्यु के चक्र से बंधा हुआ है। जन्म के साथ जहां खुशियां आती हैं, वहीं मृत्यु जीवन की अंतिम सच्चाई है। श्मशान घाट वो स्थान है जहां इंसान का शरीर अग्नि को समर्पित कर पंचतत्व में मिल जाता है। हिंदू धर्म में ये माना जाता है कि दाह संस्कार के बाद ही आत्मा अपनी आगे की यात्रा स्वर्ग, नर्क या पुनर्जन्म की ओर बढ़ पाती है।
परंपराओं के इस क्रम में एक प्राचीन नियम बेहद खास है, कि अंतिम संस्कार पूरा होने के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए। आखिर ऐसा क्यों कहा गया है?
आत्मा का मोह और पीछे मुड़कर देखने का कारण
शास्त्रों और गरुड़ पुराण के अनुसार, जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो उसकी आत्मा तुरंत शरीर से अलग होकर अपने प्रियजनों के पास रहती है। अंतिम संस्कार के समय वो आत्मा अपने परिवार और रिश्तेदारों को शोक में देखकर उनके पास बने रहने की चाह रखती है।
माना जाता है कि अगर कोई व्यक्ति चिता से लौटते समय पीछे मुड़कर देख ले, तो आत्मा भी मोहवश उसके साथ घर लौटने की इच्छा करती है। इसीलिए पीछे देखने की मनाही है ताकि आत्मा बंधनों से मुक्त होकर शांति के मार्ग पर आगे बढ़ सके।
गीता का संदेश
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि आत्मा न तो जन्म लेती है, न ही मरती है। शरीर नष्ट होता है लेकिन आत्मा शाश्वत और अविनाशी है। दाह संस्कार इसी सत्य को स्वीकार करने की प्रक्रिया है, जिसमें परिवारजन आत्मा को शुभकामनाओं के साथ आगे की यात्रा पर भेजते हैं।
तेरह दिन का महत्व
मृत्यु के बाद आत्मा को ‘प्रेत’ कहा जाता है और वो करीब दस दिनों तक अपने घर-परिवार के आसपास मंडराती रहती है। इसलिए तेरहवें दिन तक विशेष कर्मकांड किए जाते हैं। ये सभी रस्में आत्मा को शांति और मोक्ष दिलाने के लिए होती हैं, ताकि वो अगले लोक की ओर निडर होकर प्रस्थान कर सके।
पीछे न देखने की परंपरा केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि एक गहरा आध्यात्मिक संदेश है। ये हमें सिखाता है कि मृत आत्मा को उसके मार्ग पर स्वतंत्र छोड़ देना ही सच्ची विदाई है।
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