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3 नए आपराधिक कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट में नहीं होगी सुनवाई, हाईकोर्ट को दिया ये निर्देष

सुप्रीम कोर्ट
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भारत में न्याय व्यवस्था के इतिहास में ये पल बेहद अहम है। देश के तीन नए आपराधिक कानून भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, जिनके जरिए सरकार ने पुराने ब्रिटिश दौर के कानूनों को बदलने की कोशिश की है, अब सवालों के घेरे में आ गए हैं।

लेकिन, दिलचस्प मोड़ ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं को अपने पास सुनने से इनकार कर दिया है। अदालत ने साफ कहा कि पहले मद्रास हाईकोर्ट इस मामले को प्राथमिकता के साथ देखे।

याचिका और दलीलें
तमिलनाडु और पुडुचेरी के फेडरेशन ऑफ बार एसोसिएशन्स ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी कि तीनों नए कानूनों पर जो चुनौतियां हाईकोर्ट में लंबित हैं, उन्हें सीधे शीर्ष अदालत में लाकर सुना जाए। उनका कहना था कि ये मुद्दा बेहद व्यापक है और पहले से ही कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं।

लेकिन, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जॉयमाल्या बागची और जस्टिस विपुल पंचोली की पीठ ने साफ कहा – “ये मामला संवैधानिक वैधता से जुड़ा है। ऐसे मामलों में हमें हाईकोर्ट की राय का लाभ उठाना चाहिए।”

सुप्रीम कोर्ट का आदेश और भावनात्मक पहलू
सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट से अपील की है कि इन याचिकाओं को जल्द से जल्द डिवीजन बेंच के सामने लाया जाए और प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई हो। अदालत ने ये भी जताया कि इस विषय पर अनिश्चितता लंबे समय तक बनी रही, जिससे याचिकाकर्ताओं की चिंता स्वाभाविक है।

एक वकील ने अदालत में कहा, “हम इन नए कानूनों का नाम भी आसानी से नहीं बोल पा रहे हैं।” ये टिप्पणी अपने आप में बताती है कि किस तरह नामकरण ने ही कानूनी व्यवस्था में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है।

विवाद क्यों है खास?
पिछले साल ही मद्रास हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि तीनों नए आपराधिक कानूनों के नामकरण ने ‘अराजकता’ पैदा कर दी है। हालांकि सरकार का मकसद ये दिखाना था कि भारत अब औपनिवेशिक कानूनों से मुक्त होकर अपने दम पर नया न्याय तंत्र बना रहा है।

यही वजह है कि ये बहस अब सिर्फ कानूनी नहीं, बल्कि भावनात्मक और ऐतिहासिक भी हो गई है। ये सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या नए नाम और नए प्रावधान जनता को न्याय दिलाने में मदद करेंगे, या फिर ये बदलाव केवल प्रतीकात्मक ही रह जाएगा?

अब सभी की नज़रें मद्रास हाईकोर्ट पर टिकी हैं। वहां सुनवाई तेज़ी से होती है या नहीं, इस पर ही आगे की कानूनी लड़ाई का रास्ता तय होगा। सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला दरअसल न्यायपालिका के उस संतुलन को दिखाता है, जहां निचली अदालतों की राय और प्रक्रिया को महत्व दिया जाता है।

ये पूरा मामला केवल कानून की किताबों तक सीमित नहीं है, बल्कि देश के नागरिकों के लिए न्याय की नई परिभाषा तय कर सकता है। सवाल बड़ा है, क्या ये तीन नए कानून भारत को न्याय की नई दिशा देंगे, या फिर नाम और शब्दों की उलझन में ही खो जाएंगे?

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