विकलांग व्यक्तियों के लिए बने क़ानूनों का सिर्फ़ क़ागज़ो पर होना काफ़ी नहीं है, सरकारी अधिकारियों को इन्हें लागू भी करना चाहिए। बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह बात एक दृष्टिबाधित महिला की याचिका के निपटारे के दौरान कही है।
भारत सरकार ने विकलांग व्यक्तियों को शिक्षा, रोज़गार और अन्य क्षेत्रों में समान अवसर देने के लिए कई क़ानून बनाए हैं। विकलांग व्यक्ति अधिकार अधिनियम, 2016 भी इन्ही में से एक है।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने विकलांगजनों के अधिकारों से जुड़े एक अहम मामले पर फ़ैसला सुनाते हुए कहा है कि विकलांग व्यक्तियों के लिए सिर्फ़ क़ानून बनाना काफ़ी नहीं है, बल्कि सरकारी अधिकारियों का यह फ़र्ज़ है कि वे इन क़ानूनों की भावना का सम्मान करते हुए उनका सही तरीके से पालन भी करें।
एक दृष्टिबाधित महिला, शांता सोनवणे ने रेलवे में असिस्टेंट के पद के लिए आवेदन किया था, लेकिन आवेदन फॉर्म में उनकी जन्मतिथि की एंट्री गलत हो गई थी, जिसकी वजह से रेलवे ने उनकी उम्मीदवारी रद्द कर दी थी।
हाई कोर्ट ने रेलवे के इस फ़ैसले को पलटते हुए कहा कि दृष्टिबाधित लोगों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे हर काम में अन्य लोगों की तरह ही होंगे। इस तरह के मामले में अधिकारियों को संवेदनशील होना चाहिए।
हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा है कि विकलांगों के लिए बने क़ानूनों को क़ागज़ो तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन्हें सही मायनों में लागू भी होना चाहिए, ताकि विकलांग लोग समाज की मुख्यधारा से जुड़ सकें। कोर्ट ने कहा कि सोनवणे के मामले में रेलवे अधिकारियों ने जो सख़्त रुख अपनाया वह ग़लत है और यह 2016 के विकलांग व्यक्ति अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत है।
शांता सोनवणे ने बॉम्बे हाईकोर्ट में रेलवे के फ़ैसले को चुनौती दी थी। कोर्ट ने सुनवाई के दौरान रेलवे को सोनवणे की उम्मीदवारी पर फिर से विचार करने के लिए कहा था और रेलवे से एक पद रिक्त रखने को कहा था।
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बॉम्बे हाईकोर्ट के इस फ़ैसले से विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की लड़ाई को बल मिलेगा। उम्मीद है कि सरकार और अधिकारी इस फ़ैसले का सम्मान करेंगे और विकलांग व्यक्तियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करेंगे।