Orographic Rainfall: जम्मू-कश्मीर में अगस्त 2025 में आई भयानक बाढ़ ने पूरे देश का ध्यान खींचा। तवी, चिनाब और रावी जैसी नदियों का जलस्तर खतरे के निशान से ऊपर पहुंच गया। किश्तवाड़, डोडा और अन्य पहाड़ी इलाकों में कुछ ही मिनटों की बारिश ने सैकड़ों जिंदगियां छीन लीं। वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस तबाही की सबसे बड़ी वजह थी ओरोग्राफिक रेनफॉल। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें नमी से भरे बादल हिमालय के पहाड़ों से टकराकर ऊपर उठते हैं। ऊपर जाकर ठंडी हवा में नमी बारिश के रूप में नीचे गिरती है। यह बारिश इतनी तेज होती है कि छोटे-छोटे इलाकों में भारी तबाही मचा देती है।
जम्मू यूनिवर्सिटी के जियोलॉजी विशेषज्ञ प्रो. सरफराज असगर के अनुसार, हिमालय का तापमान मैदानी इलाकों की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। पहले जहां बर्फ गिरती थी, वहां अब मूसलाधार बारिश हो रही है। स्नोलाइन ऊपर खिसक गई है, जिससे बारिश का पैटर्न बदल गया है। ग्लोबल वार्मिंग ने बादलों में नमी की मात्रा को और बढ़ा दिया है। जब ये बादल पहाड़ों से टकराते हैं, तो छोटे क्षेत्र में इतना पानी गिरता है कि नदियां और नाले उफान पर आ जाते हैं। किश्तवाड़ में अगस्त 2025 में बादल फटने की घटना इसका सबूत है, जिसमें 500 से ज्यादा लोग बाढ़ में बह गए।
जम्मू में इस बार बारिश ने 2014 की बाढ़ की यादें ताजा कर दीं। तवी नदी का पानी पुलों तक पहुंच गया। पुरानी इमारतें, स्कूल और कॉलेज पानी में डूब गए। सड़कों पर बैरिकेडिंग करनी पड़ी, लेकिन लोग गड्ढों और धंसी सड़कों को देखने के लिए जमा हो गए। वैज्ञानिकों का कहना है कि सिर्फ मौसम ही इस तबाही का जिम्मेदार नहीं है। नदियों के किनारे बनी बेतरतीब बस्तियों ने भी इस खतरे को बढ़ाया है। ये बस्तियां पानी के बहाव को रोकती हैं, जिससे बाढ़ का असर और बढ़ जाता है।
पहाड़ों पर सड़कों, सुरंगों और बांधों का अंधाधुंध निर्माण भी एक बड़ी वजह है। प्रो. असगर बताते हैं कि जब पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिलता, तो वह रास्ते में आने वाली हर चीज को बहा ले जाता है। अगस्त 2025 में जम्मू-कश्मीर में हुए भूस्खलन और बाढ़ ने कई सड़कें और पुल तोड़ दिए। किश्तवाड़ में मचैल माता मंदिर के पास तीर्थयात्रियों पर बादल फटने से भारी नुकसान हुआ।
2010 से 2022 के बीच जम्मू-कश्मीर में 2,863 ऐसी चरम मौसम की घटनाएं हुईं, जिनमें 552 लोगों की जान गई। भारी बारिश और बर्फबारी इनमें सबसे खतरनाक रहीं। विशेषज्ञों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग ने इन घटनाओं को और बढ़ा दिया है। हिमालय का नाजुक पर्यावरण अब पहले से कहीं ज्यादा संवेदनशील हो गया है। बेतरतीब निर्माण और नदियों के किनारे बस्तियां बसाना इस खतरे को और बढ़ा रहा है।