Dudhganga Project: कोल्हापुर के व्हानूर गांव की कुछ साधारण सी कहानियां आज सुर्खियों में हैं। ये कहानियां उन परिवारों की हैं, जिन्होंने तीस साल पहले अपनी जमीन दुधगंगा परियोजना (Dudhganga Project) के लिए सौंप दी थी। उस समय इन परिवारों को भरोसा दिया गया था कि उनकी जमीन का मुआवजा और पुनर्वास होगा। लेकिन तीन दशक बीत जाने के बाद भी न तो उन्हें एक पैसा मिला और न ही कोई कानूनी प्रक्रिया पूरी हुई। अब, बॉम्बे हाई कोर्ट ने इन परिवारों के पक्ष में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को आदेश दिया है कि इन परिवारों को उनकी जमीन अधिग्रहण (Land Acquisition) के लिए उचित मुआवजा दिया जाए। यह फैसला न केवल इन परिवारों के लिए, बल्कि पूरे देश में संपत्ति के अधिकारों की रक्षा के लिए एक मिसाल है।
यह कहानी 1990 की है, जब कोल्हापुर जिले के कागल तालुका में व्हानूर गांव के कुछ परिवारों ने अपनी जमीन दुधगंगा सिंचाई परियोजना के लिए दी थी। यह परियोजना उन लोगों के पुनर्वास के लिए थी, जिन्हें इस बड़े बांध के निर्माण के कारण विस्थापित होना पड़ा था। सरकार ने इन परिवारों से कहा कि उनकी जमीन स्वेच्छा से ली जा रही है, और इसके लिए एक हलफनामा भी लिया गया। लेकिन इसके बाद न तो कोई आधिकारिक अधिग्रहण पुरस्कार जारी हुआ और न ही कोई मुआवजा दिया गया। इन परिवारों ने, जो ज्यादातर ग्रामीण और कानूनी अधिकारों से अनजान थे, सालों तक इंतजार किया।
इन परिवारों ने कई बार उप-कलेक्टर के पास अपनी शिकायतें लेकर गए, लेकिन हर बार उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा। आखिरकार, वकील नितिन देशपांडे की मदद से उन्होंने बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उनकी याचिका में यह मांग थी कि उनकी जमीन के लिए उचित मुआवजा दिया जाए। सरकार ने इसका विरोध करते हुए कहा कि याचिका में 30 साल से ज्यादा की देरी हुई है और 2010 के एक सरकारी प्रस्ताव के अनुसार इतने समय बाद मुआवजे का दावा मान्य नहीं है। लेकिन कोर्ट ने इस दलील को सिरे से खारिज कर दिया।
2 मई 2025 को, जस्टिस गिरीश कुलकर्णी और सोमशेखर सुंदरेशन की खंडपीठ ने इस मामले में सुनवाई की। कोर्ट ने कहा कि संपत्ति का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 300A के तहत सुरक्षित है। कोई भी सरकार किसी नागरिक की संपत्ति को बिना उचित मुआवजा और कानूनी प्रक्रिया के नहीं ले सकती, भले ही वह जमीन स्वेच्छा से दी गई हो। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि यह एक सभ्य समाज की पहचान है कि कानून का उपयोग सभी के साथ समानता से हो। ग्रामीण क्षेत्रों के लोग, जो अशिक्षित हैं या अपने अधिकारों से अनजान हैं, उनके साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने सरकार की कार्यशैली पर कड़ी टिप्पणी की। उसने कहा कि यह हैरान करने वाला है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रही है। इन परिवारों ने अपनी जमीन एक बड़े सार्वजनिक उद्देश्य के लिए दी थी, लेकिन उन्हें बदले में कुछ भी नहीं मिला। कोर्ट ने इसे संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन माना। उसने यह भी साफ किया कि मुआवजे का अधिकार एक ऐसा दावा है जो समय के साथ खत्म नहीं होता। इसे “निरंतर कार्रवाई का कारण” माना जाता है, यानी जब तक मुआवजा नहीं मिलता, तब तक यह हक बना रहता है।
इस फैसले में कोर्ट ने आदेश दिया कि इन परिवारों की जमीन को 1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत “मान्य अधिग्रहण” माना जाए। इसका मतलब है कि सरकार को 19 सितंबर 1990, यानी जिस दिन जमीन ली गई थी, उस दिन से मुआवजा देना होगा। इसमें न केवल मूल राशि, बल्कि सॉलेशियम, ब्याज और अन्य वैधानिक लाभ भी शामिल होंगे। कोर्ट ने कलेक्टर को चार महीने के भीतर मुआवजा तय करने और देने का निर्देश दिया। इसके अलावा, सरकार को प्रत्येक याचिकाकर्ता को 25,000 रुपये कानूनी खर्च के रूप में भी देने होंगे।
यह मामला सिर्फ व्हानूर गांव के कुछ परिवारों तक सीमित नहीं है। यह उन हजारों लोगों की कहानी को उजागर करता है, जो बड़े विकास परियोजनाओं के नाम पर अपनी जमीन खो देते हैं और फिर सालों तक मुआवजे के लिए भटकते रहते हैं। दुधगंगा परियोजना (Dudhganga Project) जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स ने कई लोगों के जीवन को बेहतर बनाया, लेकिन इसके लिए जमीन देने वालों को अक्सर भुला दिया जाता है। ये परिवार, जो खेती पर निर्भर थे, अपनी आजीविका का आधार खो बैठे। फिर भी, उन्होंने हार नहीं मानी और कानूनी लड़ाई लड़ी।
कोर्ट का यह फैसला संविधान के उस सिद्धांत को मजबूत करता है कि संपत्ति का अधिकार मौलिक है। यह सरकारों को याद दिलाता है कि वे अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं कर सकतीं। ग्रामीण और कमजोर तबकों के लोग, जो अक्सर अपनी आवाज उठाने में असमर्थ होते हैं, इस फैसले से उम्मीद की किरण पा सकते हैं। यह उन सभी के लिए एक सबक है कि कानून की नजर में सभी समान हैं, चाहे वे शहर में रहें या गांव में।
जमीन अधिग्रहण (Land Acquisition) के मामलों में अक्सर देखा जाता है कि सरकारें औपचारिकताओं को नजरअंदाज कर देती हैं। इस मामले में भी, सरकार ने न तो अधिग्रहण की प्रक्रिया पूरी की और न ही पुरस्कार जारी किया। कोर्ट ने इसे गंभीर लापरवाही माना। उसने यह भी कहा कि अगर सरकार ने शुरू में ही सही प्रक्रिया अपनाई होती, तो इन परिवारों को इतने सालों तक इंसाफ के लिए नहीं भटकना पड़ता। यह फैसला उन नीतियों पर भी सवाल उठाता है, जो ग्रामीण लोगों के अधिकारों की अनदेखी करती हैं।
व्हानूर के इन परिवारों की कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि विकास की कीमत कौन चुकाता है। बड़े बांध, सड़कें और कारखाने बनते हैं, लेकिन इसके लिए अपनी जमीन खोने वालों का क्या? यह फैसला उन लोगों के लिए एक जीत है, जिन्होंने सालों तक चुपचाप अन्याय सहे। यह हमें यह भी याद दिलाता है कि संविधान हर नागरिक के साथ खड़ा है, चाहे वह कितना ही साधारण क्यों न हो।
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