महाराष्ट्र के स्कूलों में एक नया बदलाव आया है, जो हर माता-पिता, छात्र और शिक्षक के लिए चर्चा का विषय बन गया है। 17 जून 2025 को जारी एक संशोधित सरकारी आदेश (Revised GR, संशोधित सरकारी आदेश) ने मराठी और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को तीसरी भाषा (Third Language, तीसरी भाषा) के रूप में पढ़ाने का फैसला किया है। इस आदेश ने न केवल शिक्षा जगत में हलचल मचा दी है, बल्कि इसे लेकर विरोध और बहस भी शुरू हो गई है। यह खबर उन युवाओं के लिए खास है, जो अपने राज्य की शिक्षा नीति और भाषा की विविधता को समझना चाहते हैं। आइए, इस कहानी को विस्तार से जानते हैं।
इस नए आदेश के अनुसार, हिंदी अब कक्षा 1 से 5 तक मराठी और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जाएगी। लेकिन इसमें एक शर्त भी है। अगर किसी स्कूल की एक ही कक्षा में कम से कम 20 छात्र किसी दूसरी भारतीय भाषा को पढ़ना चाहते हैं, तो उन्हें हिंदी की जगह वह भाषा पढ़ने की अनुमति मिलेगी। अगर इतने छात्र नहीं मिलते, तो हिंदी ही डिफॉल्ट तीसरी भाषा रहेगी। इस शर्त ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं, क्योंकि ज्यादातर स्कूलों में 20 छात्रों की यह संख्या पूरी करना मुश्किल है।
इससे पहले अप्रैल 2025 में सरकार ने हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बनाने का आदेश दिया था। उस समय मराठी भाषा के समर्थकों और राजनीतिक दलों ने इसका तीखा विरोध किया। उनका कहना था कि यह गैर-हिंदी भाषी छात्रों पर हिंदी थोपने की कोशिश है। विरोध इतना बढ़ा कि सरकार को वह आदेश वापस लेना पड़ा। स्कूल शिक्षा मंत्री दादा भुसे ने तब घोषणा की थी कि हिंदी अनिवार्य नहीं होगी और दूसरी भारतीय भाषाओं के लिए विकल्प दिए जाएंगे। लेकिन अब यह संशोधित आदेश फिर से विवाद का कारण बन गया है।
नया आदेश आने के बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) ने इसे हिंदी की “छिपी हुई थोपन” करार दिया। पार्टी प्रमुख राज ठाकरे ने चेतावनी दी है कि अगर स्कूल इस नीति को लागू करते हैं, तो उनके खिलाफ प्रदर्शन किए जाएंगे। उनका कहना है कि यह मराठी भाषा और संस्कृति की अनदेखी है। दूसरी ओर, शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि 20 छात्रों की शर्त इतनी सख्त है कि ज्यादातर स्कूलों में हिंदी के अलावा कोई दूसरी भाषा पढ़ाना संभव ही नहीं होगा।
वरिष्ठ शिक्षा विशेषज्ञ वसंत कल्पांडे ने इस आदेश की आलोचना की। उनका कहना है कि महाराष्ट्र में 80 प्रतिशत से ज्यादा स्कूलों में एक कक्षा में 20 छात्र भी नहीं होते। कई सरकारी स्कूलों में तो कुल छात्रों की संख्या ही इससे कम है। ऐसे में दूसरी भाषा पढ़ाने का विकल्प देना सिर्फ कागजी बात है। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि जब दूसरी भारतीय भाषाओं के लिए पाठ्यक्रम, किताबें और शिक्षक ही उपलब्ध नहीं हैं, तो सरकार यह विकल्प कैसे दे सकती है।
गोरेगांव के शिक्षण मंडल के अध्यक्ष गिरीश सामंत ने भी इस आदेश पर सवाल उठाए। उनके स्कूल में मराठी माध्यम से पढ़ाई होती है और वहां छात्रों की संख्या अच्छी है। फिर भी, उन्होंने बताया कि सरकार ने ऑनलाइन तरीके से दूसरी भाषाएं पढ़ाने की बात कही है, लेकिन इसके लिए कोई स्पष्ट योजना नहीं है। खासकर कक्षा 1 के छोटे बच्चों को ऑनलाइन भाषा कैसे सिखाई जाएगी, यह समझ से परे है। सामंत का यह भी कहना है कि इतनी कम उम्र में तीन भाषाएं पढ़ाना बच्चों के लिए बोझ है।
मराठी स्कूल प्रबंधन संघ के समन्वयक सुशील शेजुले ने सरकार के इस फैसले को राजनीति से प्रेरित बताया। उनका कहना है कि स्टेट करिकुलम फ्रेमवर्क (SCF) 2024 में कक्षा 5 तक सिर्फ दो भाषाएं पढ़ाने की सिफारिश थी। फिर भी सरकार ने कक्षा 1 से ही तीन भाषाएं लागू कर दीं। उन्होंने यह भी बताया कि महाराष्ट्र के छात्र पहले से ही बोलचाल में हिंदी सीख लेते हैं, तो इसे अनिवार्य करने की क्या जरूरत है।
शेजुले ने एक और महत्वपूर्ण बात उठाई। सरकार ने कहा है कि अगर 20 छात्र दूसरी भाषा पढ़ना चाहें, तो शिक्षक उपलब्ध कराया जाएगा। लेकिन वर्तमान में शिक्षकों की भर्ती नहीं हो रही है। ऐसे में यह वादा कैसे पूरा होगा। अगर किसी बड़े स्कूल में दो अलग-अलग समूह 20-20 छात्रों के साथ दो अलग भाषाएं पढ़ना चाहें, तो सरकार क्या करेगी। इन सवालों का जवाब आदेश में नहीं है।
शिक्षाविद् महेंद्र गनपुले ने बताया कि SCF के अनुसार, कक्षा 1 और 2 के लिए सिर्फ दो भाषाओं की सिफारिश थी। तीसरी भाषा को जोड़ने के लिए SCF में कोई संशोधन नहीं किया गया। फिर भी, समय-सारिणी में तीसरी भाषा को कैसे समायोजित किया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है। एक अन्य विशेषज्ञ किशोर दारक ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 का हवाला दिया। उनके मुताबिक, राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा (NCFSE) 2023 में तीसरी भाषा को कक्षा 6 से शुरू करने की सिफारिश है। ऐसे में कक्षा 1 से तीसरी भाषा पढ़ाना शैक्षणिक रूप से ठीक नहीं है।
इस बीच, स्कूल शिक्षा मंत्री दादा भुसे ने 18 जून को बयान जारी कर सफाई दी। उन्होंने कहा कि मराठी भाषा सभी स्कूलों में अनिवार्य है, चाहे स्कूल किसी भी माध्यम का हो। हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाएं वैकल्पिक हैं। उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि मराठी न पढ़ाने वाले स्कूलों पर सख्त कार्रवाही होगी। लेकिन इस बयान ने विवाद को पूरी तरह शांत नहीं किया।
महाराष्ट्र में भाषा का मुद्दा हमेशा से संवेदनशील रहा है। मराठी भाषा यहाँ की पहचान है, और लोग इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा मानते हैं। हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में लागू करने का यह फैसला कई लोगों को मराठी की अनदेखी लग रहा है। दूसरी ओर, कुछ लोग मानते हैं कि हिंदी राष्ट्रीय भाषा है, और इसे सीखना छात्रों के भविष्य के लिए फायदेमंद हो सकता है। लेकिन 20 छात्रों की शर्त और दूसरी भाषाओं के लिए संसाधनों की कमी ने इस नीति को सवालों के घेरे में ला दिया है।
पुणे में महाराष्ट्र साहित्य परिषद ने भी इस आदेश का विरोध किया। परिषद के जोशी ने कहा कि उनकी संस्था साहित्य और संस्कृति से जुड़ी है, और वह राजनीतिक नहीं है। फिर भी, अगर सरकार यह फैसला वापस नहीं लेती, तो उन्हें सड़कों पर उतरकर विरोध करना पड़ेगा। यह बयान दिखाता है कि यह मुद्दा कितना गंभीर हो चुका है।
यह मामला सिर्फ शिक्षा नीति का नहीं, बल्कि भाषा, संस्कृति और पहचान का भी है। महाराष्ट्र के ग्रामीण और शहरी इलाकों में स्कूलों की स्थिति अलग-अलग है। छोटे गाँवों में जहाँ एक कक्षा में 10-15 बच्चे ही पढ़ते हैं, वहाँ दूसरी भाषा का विकल्प देना असंभव है। बड़े शहरों में भी, जहाँ मराठी और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में विविधता है, दूसरी भाषाओं के लिए शिक्षक और किताबें उपलब्ध कराना आसान नहीं।
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