Thane Family Deported: नवी मुंबई में एक परिवार का बिछड़ना अवैध प्रवासियों (Illegal Migrants) के खिलाफ चलाए गए अभियान की वजह से चर्चा में है। महाराष्ट्र के थाने शहर में रहने वाले हसन शेख और उनके तीन बच्चों को बांग्लादेश डिपोर्ट कर दिया गया। यह घटना केंद्र सरकार के निर्देशों पर शुरू हुए एक विशेष अभियान का हिस्सा थी, जिसके तहत नवी मुंबई पुलिस ने 116 बांग्लादेशी नागरिकों को हिरासत में लेकर उन्हें छह दिनों के भीतर उनके देश भेज दिया। इस अभियान ने कई सवाल उठाए हैं, खासकर तब जब हसन की पत्नी शहनाज़ शेख, जो भारतीय नागरिक हैं, अपने परिवार से बिछड़ गईं।
हसन शेख का परिवार थाने के भिवंडी इलाके में रहता था। शहनाज़ के अनुसार, उनके पति को 1999 में मुरबाड के मम्नोली गांव में मुक्तार शेख ने पांच साल की उम्र में पाया था। तब से हसन को मुक्तार ने अपने बेटे की तरह पाला। उनके तीन बच्चे—आठ साल की हुमैरा, छह साल का अली, और दो साल की ज़ीनत—थाने में ही पैदा हुए। इन बच्चों के जन्म प्रमाण पत्र थाने नगर निगम और भिवंडी निज़ामपुर नगर निगम द्वारा जारी किए गए थे। फिर भी, एक गलत बयान ने इस परिवार को हमेशा के लिए अलग कर दिया।
यह सब तब शुरू हुआ जब ईद के दिन हसन अपने परिवार के साथ पनवेल में अपने दोस्त हुसैन मुल्ला के घर गए थे। हुसैन एक बांग्लादेशी नागरिक थे। पुलिस ने उस दिन हुसैन के घर पर छापा मारा। हुसैन के पिता इनामुल, जो नशे में थे, ने गलती से हसन को अपना बेटा बता दिया। इसके आधार पर नवी मुंबई पुलिस ने हसन और उनके तीन बच्चों को हिरासत में ले लिया। शहनाज़ को भारतीय नागरिक होने के कारण छोड़ दिया गया, लेकिन उनके पति और बच्चों को 7 और 8 जुलाई को हिरासत में लेकर 12 जुलाई तक बांग्लादेश भेज दिया गया। इस पूरी प्रक्रिया में न तो गिरफ्तारी का कोई औपचारिक रिकॉर्ड बनाया गया, न ही FIR दर्ज की गई, और न ही परिवार को कोर्ट में पेश किया गया।
केंद्र सरकार ने इस अभियान को कम प्रचार के साथ चलाने का निर्देश दिया था। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि अवैध प्रवासियों (Illegal Migrants) को तुरंत डिपोर्ट करने का उद्देश्य था, ताकि कानूनी प्रक्रियाओं में समय नष्ट न हो। इसके लिए पुलिस ने डिपोर्ट किए गए लोगों के बायोमेट्रिक डेटा भी दर्ज किए, ताकि वे दोबारा भारत न आ सकें। लेकिन इस जल्दबाजी ने हसन जैसे लोगों के जीवन को उथल-पुथल कर दिया। शहनाज़ का कहना है कि उनके पति को बांग्ला भाषा नहीं आती और न ही उनका बांग्लादेश में कोई रिश्तेदार है।
बांग्लादेश पहुंचने के बाद हसन ने किसी की मदद से शहनाज़ को वीडियो कॉल किया। उन्होंने बताया कि उन्हें सीमा पर जंगल में छोड़ दिया गया था। वहां से निकलने में उन्हें बहुत मुश्किल हुई। उनकी सबसे छोटी बेटी ज़ीनत, जो अभी भी मां का दूध पीती थी, अब मां से दूर है। शहनाज़ का कहना है कि पुलिस ने इनामुल के बयान की सत्यता जांचने के लिए DNA टेस्ट तक नहीं किया। परिवार अब पुलिस स्टेशन और स्थानीय कोर्ट के चक्कर काट रहा है, ताकि कम से कम हिरासत का कारण तो पता चल सके।
यह अभियान केंद्र सरकार की उस नीति का हिस्सा है, जिसके तहत अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों को पहचानकर डिपोर्ट किया जा रहा है। नवी मुंबई पुलिस की उपायुक्त रश्मि नांदेडकर ने बताया कि यह अभियान अभी जारी है और जल्द ही और जानकारी साझा की जाएगी। लेकिन इस प्रक्रिया ने कई मानवीय सवाल खड़े किए हैं। शहनाज़ जैसे लोग अब अपने परिवार को वापस लाने की उम्मीद में संघर्ष कर रहे हैं। उनके रिश्तेदार का कहना है कि बच्चे भारतीय मिट्टी पर पैदा हुए थे और उनके पास वैध दस्तावेज थे। फिर भी, एक गलत बयान ने उनकी जिंदगी बदल दी।
महाराष्ट्र में यह पहला मामला नहीं है। पिछले कुछ महीनों में दिल्ली, गुजरात, और राजस्थान जैसे राज्यों में भी ऐसे अभियान चलाए गए हैं। इन अभियानों में हजारों लोगों को हिरासत में लिया गया और बांग्लादेश भेजा गया। कई बार ऐसे लोग भी डिपोर्ट किए गए, जिनके पास भारतीय दस्तावेज थे। इन मामलों ने यह सवाल उठाया है कि क्या जल्दबाजी में लिए गए फैसले निर्दोष लोगों को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
शहनाज़ की कहानी उन हजारों परिवारों की तरह है, जो इस अभियान की चपेट में आए हैं। उनके बच्चों की स्कूली पढ़ाई, उनका भविष्य, और उनका घर अब अनिश्चितता के साये में है। शहनाज़ का कहना है कि हसन ने हमेशा भारत को अपना घर माना। वह एक मेहनती व्यक्ति थे, जो अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। लेकिन एक गलतफहमी ने उन्हें उस देश में भेज दिया, जहां उनका कोई ठिकाना नहीं।
इस अभियान ने अवैध प्रवासियों (Illegal Migrants) के खिलाफ सख्ती दिखाने की कोशिश की है, लेकिन यह भी सच है कि कई परिवारों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। शहनाज़ अब अपने बच्चों की तस्वीरें देखकर दिन गुजार रही हैं। उनका कहना है कि वह अपने परिवार को वापस लाने के लिए हर संभव कोशिश करेंगी। यह कहानी न केवल एक परिवार की पीड़ा को दर्शाती है, बल्कि यह भी बताती है कि नीतियों को लागू करते समय मानवीय पहलुओं का ध्यान रखना कितना जरूरी है।
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