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Karpoori Thakur: बिहार के पूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर को मिलेगा भारत रत्न: दो बार CM रहे, तीन दशक सियासत की, फिर भी वसीयत में सिर्फ झोपड़ी छोड़ गए

Karpoori Thakur
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Karpoori Thakur: बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और सामाजिक न्याय के पुरोधा कर्पूरी ठाकुर की 24 जनवरी को 100वीं जयंती है. इस बेहद ही खास मौके पर भारत सरकार की ओर से उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किए जाने का ऐलान किया गया है. राष्ट्रपति कार्यालय ने इसकी घोषणा उनकी सौवीं जयंती से ठीक एक दिन पहले की है. जानकारी हो कि कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में गरीबों, दलितों और पिछड़ों के उत्थान के लिए संघर्ष किया और बिहार की राजनीति में एक अद्वितीय पहचान बनाई.

बिहार के नाम को रौशन करने वाले उस महान शख्स का जन्म 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव (अब कर्पूरी ग्राम) में हुआ था. उनके पिता गोकुल ठाकुर और माता रामदुलारी देवी एक सीमांत किसान परिवार से थे. उन्होंने अपनी पढ़ाई बेनीपट्टी, मधुबनी और दरभंगा के स्कूलों में की और बाद में पटना यूनिवर्सिटी से बीए और एलएलबी की डिग्री हासिल की. कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) ने अपने छात्र जीवन में राष्ट्रवादी और समाजवादी विचारों से प्रेरित होकर आंदोलनों में भाग लिया और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के सदस्य बने.

1952 में उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी के बैनर तले बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीता. ठाकुर ने अपने राजनीतिक गुरु राममनोहर लोहिया की विचारधारा को अपनाया और दलितों, पिछड़ों व वंचितों के हक की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाई. 1967 में उन्होंने बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन किया और उपमुख्यमंत्री बने. इसके बाद साल 1970 में फिर से उन्होंने गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई और इस बार मुख्यमंत्री का पद संभाला.

अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई ऐतिहासिक फैसले लिए, जैसे कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान, अंग्रेजी को अनिवार्य विषय से हटाना, बिहारी भाषा को राजभाषा बनाना, गांवों में शिक्षा का प्रसार करना, गरीबों को भूमि वितरण करना, नारी उत्थान के लिए कदम उठाना जैसे अनेकों कार्य शामिल हैं. वो एक ऐसे महान शख्सियत थे, जिन्होंने अपनी सरकार को जनता की सरकार कहा और अपने आप को जनता का सेवक माना था.

कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) ने अपने पूरे जीवन में सरलता और सादगी का परिचय दिया था. वे चुनाव जीतने के बाद भी रिक्शे पर चलते थे. उनकी वसीयत में उन्होंने अपने परिवार के लिए सिर्फ एक झोपड़ी छोड़ी थी, जो अब उनके स्मारक में तब्दील कर दी गई है. उनकी जयंती पर बिहार के लोगों के साथ-साथ देश भर के लोग उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं और उनके सपनों को आगे बढ़ाने का संकल्प लेते हैं.

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