Hindi Mandatory Rule Scrapped: महाराष्ट्र में पिछले कुछ दिनों से एक मुद्दा गर्माया हुआ था। कक्षा 1 से 5 तक के स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य करने का फैसला लिया गया था, लेकिन इस पर तीखी बहस और विरोध के बाद सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। शिक्षा मंत्री दादा भूसे ने साफ कर दिया कि अब हिंदी अनिवार्य नहीं होगी। इसके बजाय, मराठी और इंग्लिश को अनिवार्य रखा गया है, जबकि तीसरी भाषा को वैकल्पिक कर दिया गया है। यह खबर न केवल महाराष्ट्र के लाखों छात्रों और उनके परिवारों के लिए राहत लेकर आई, बल्कि यह भी दिखाती है कि जनता की आवाज कितनी ताकतवर हो सकती है। इस लेख में हम इस पूरे मामले को विस्तार से समझेंगे और जानेंगे कि आखिर यह फैसला क्यों और कैसे बदला गया।
हिंदी अनिवार्यता का विवाद कैसे शुरू हुआ?
महाराष्ट्र सरकार ने कुछ समय पहले घोषणा की थी कि कक्षा 1 से 5 तक के सभी स्कूलों में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य किया जाएगा। इस फैसले का मकसद नई शिक्षा नीति (NEP) के तहत तीन भाषा फॉर्मूले को लागू करना था, जिसमें दो भारतीय भाषाओं को पढ़ाना जरूरी है। सरकार का तर्क था कि हिंदी, जो देश की सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा है, बच्चों के लिए फायदेमंद होगी। लेकिन इस फैसले ने महाराष्ट्र में एक बड़े विवाद को जन्म दे दिया।
मराठी भाषी समुदाय, शिक्षाविदों और कई राजनीतिक दलों ने इस फैसले का कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि हिंदी को अनिवार्य करना मराठी भाषा और संस्कृति पर एक तरह का अतिक्रमण है। महाराष्ट्र, जहां मराठी भाषा को गर्व और पहचान के साथ देखा जाता है, वहां लोग इस बात से नाराज थे कि उनकी मातृभाषा के साथ किसी अन्य भाषा को बराबरी का दर्जा दिया जा रहा है। सोशल मीडिया पर भी इस मुद्दे ने तूल पकड़ा, जहां युवा और नई पीढ़ी ने खुलकर अपनी राय रखी। हैशटैग जैसे #SaveMarathi और #NoHindiImposition ट्रेंड करने लगे।
जनता के दबाव ने बदला फैसला
विरोध बढ़ता देख महाराष्ट्र सरकार को इस मुद्दे पर फिर से विचार करना पड़ा। मराठी भाषा विभाग की भाषा सलाहकार समिति ने भी सरकार से इस फैसले को रद्द करने की अपील की थी। इस बीच, मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पुणे में पत्रकारों से बात करते हुए साफ किया कि मराठी भाषा हमेशा अनिवार्य रहेगी और हिंदी को “थोपने” की कोई मंशा नहीं है। उन्होंने कहा कि सरकार का मकसद बच्चों को ज्यादा से ज्यादा भाषाएं सिखाना है, न कि किसी एक भाषा को दूसरी पर थोपना।
आखिरकार, शिक्षा मंत्री दादा भूसे ने विधानसभा में घोषणा की कि हिंदी को अनिवार्य करने का फैसला वापस ले लिया गया है। अब कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों को मराठी और इंग्लिश अनिवार्य रूप से पढ़नी होगी, जबकि तीसरी भाषा उनकी पसंद पर निर्भर होगी। बच्चे हिंदी, तमिल, मलयालम, गुजराती या किसी अन्य भारतीय भाषा को चुन सकते हैं। इस फैसले ने न केवल विरोध को शांत किया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि बच्चों को अपनी रुचि के अनुसार पढ़ाई करने की आजादी मिले।
नई शिक्षा नीति और भाषा का नियम
यह पूरा मामला नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तीन भाषा फॉर्मूले से जुड़ा है। इस नीति के तहत, स्कूलों में तीन भाषाएं पढ़ाना अनिवार्य है, जिनमें से दो भारतीय भाषाएं होनी चाहिए। महाराष्ट्र में मराठी को पहले से ही अनिवार्य किया गया है, और इंग्लिश को दूसरी अनिवार्य भाषा के रूप में रखा गया है। तीसरी भाषा के लिए पहले हिंदी को चुना गया था, लेकिन अब इसे वैकल्पिक कर दिया गया है।
मुख्यमंत्री फडणवीस ने बताया कि अगर कोई छात्र हिंदी के अलावा कोई अन्य भाषा सीखना चाहता है, तो उसे ऐसा करने की पूरी छूट होगी। लेकिन इसके लिए एक शर्त रखी गई है। अगर कोई स्कूल तीसरी भाषा के लिए नया शिक्षक नियुक्त करना चाहता है, तो कम से कम 20 छात्रों को उस भाषा को चुनना होगा। अगर इतने छात्र नहीं हैं, तो स्कूल को वर्चुअल या वैकल्पिक तरीकों से पढ़ाई का इंतजाम करना होगा। यह नियम सुनिश्चित करता है कि बच्चों को उनकी पसंद की भाषा सीखने का मौका मिले, साथ ही स्कूलों पर अतिरिक्त बोझ भी न पड़े।
मराठी भाषा और संस्कृति का महत्व
महाराष्ट्र में मराठी भाषा केवल एक संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि यह राज्य की संस्कृति, इतिहास और पहचान का अभिन्न हिस्सा है। संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम और छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे महान व्यक्तित्वों की विरासत मराठी भाषा में जीवित है। यही कारण है कि मराठी को अनिवार्य रखने की मांग इतनी प्रबल थी। स्थानीय लोगों का मानना है कि मराठी को बढ़ावा देना न केवल उनकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करता है, बल्कि नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़े रखता है।
वहीं, यह फैसला यह भी दिखाता है कि महाराष्ट्र सरकार अपनी जनता की भावनाओं का सम्मान करती है। हिंदी को वैकल्पिक बनाने से सरकार ने यह संदेश दिया कि वह मराठी भाषा और संस्कृति को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है, साथ ही बच्चों को अन्य भाषाएं सीखने की आजादी भी दे रही है।
युवाओं की भूमिका और सोशल मीडिया का प्रभाव
इस पूरे विवाद में नई पीढ़ी और सोशल मीडिया की भूमिका अहम रही। युवाओं ने ट्विटर, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर अपनी आवाज बुलंद की। उन्होंने मराठी भाषा के महत्व को रेखांकित करते हुए हिंदी अनिवार्यता के खिलाफ अभियान चलाया। कई युवा संगठनों ने ऑनलाइन और ऑफलाइन प्रदर्शन किए, जिसने सरकार पर दबाव बढ़ाया। यह पहली बार नहीं है जब सोशल मीडिया ने किसी बड़े सामाजिक या राजनीतिक बदलाव में भूमिका निभाई हो, लेकिन इस बार इसने एक बार फिर अपनी ताकत दिखाई।
एक कॉलेज छात्र, प्रिया, ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, “मराठी हमारी मां है, और हम इसे कभी कम नहीं होने देंगे। लेकिन हमें दूसरी भाषाएं सीखने की आजादी भी चाहिए।” प्रिया जैसे हजारों युवाओं की आवाज ने इस फैसले को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई।
आगे की राह
हिंदी को वैकल्पिक बनाने का फैसला महाराष्ट्र के शिक्षा क्षेत्र में एक नया अध्याय शुरू करता है। यह फैसला न केवल छात्रों को अपनी पसंद की भाषा चुनने की आजादी देता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि मराठी भाषा का गौरव बरकरार रहे। साथ ही, यह सरकार और जनता के बीच संवाद की ताकत को दर्शाता है।
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