महाराष्ट्र की सियासत में इन दिनों एक नया तूफान उठ रहा है। महायुति गठबंधन (Mahayuti Alliance), जिसमें भारतीय जनता पार्टी (BJP), शिवसेना, और अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) शामिल हैं, के बीच आपसी विश्वास की कमी ने सियासी हलकों में चर्चा छेड़ दी है। उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और बीजेपी के बीच बढ़ता तनाव अब किसी से छिपा नहीं है। शिंदे अपनी पार्टी के विधायकों के लिए फंड और महत्वपूर्ण फाइलों की मंजूरी में देरी जैसे मुद्दों पर खुलकर नाराजगी जता रहे हैं। दूसरी ओर, बीजेपी अजित पवार को गठबंधन में ज्यादा तवज्जो देकर शिंदे के प्रभाव को कम करने की रणनीति पर काम कर रही है। आइए, इस सियासी उलझन की कहानी को और करीब से समझें और जानें कि महाराष्ट्र की राजनीति में यह तनाव क्यों और कैसे बढ़ रहा है।
महायुति गठबंधन ने पिछले साल विधानसभा चुनावों में शानदार जीत हासिल की थी। बीजेपी ने 132 सीटें जीतकर अपनी ताकत दिखाई, जबकि शिंदे की शिवसेना ने 67 और अजित पवार की एनसीपी ने 41 सीटें हासिल कीं। इस जीत ने गठबंधन को मजबूत तो किया, लेकिन इसके साथ ही आपसी तनाव की नींव भी रख दी। एकनाथ शिंदे, जो 2022 में शिवसेना के बागी धड़े के नेता बनकर मुख्यमंत्री बने थे, इस बार भी सरकार में शीर्ष भूमिका की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन बीजेपी ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाकर शिंदे को उपमुख्यमंत्री की भूमिका सौंपी। इस फैसले से शिंदे की नाराजगी साफ झलकने लगी। मुंबई में ऐसी अफवाहें भी उड़ीं कि शिंदे शपथ ग्रहण समारोह से दूर रह सकते हैं या सरकार में शामिल नहीं होंगे। हालांकि, कई दौर की बातचीत के बाद वह उपमुख्यमंत्री बनने को राजी हुए।
शिंदे की नाराजगी का कारण सिर्फ़ मुख्यमंत्री की कुर्सी तक सीमित नहीं है। उनके मुताबिक, उनकी पार्टी के विधायकों को राज्य के वित्त मंत्री अजित पवार की ओर से पर्याप्त फंड नहीं दिए जा रहे हैं। इसके अलावा, उनके कई महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स की फाइलें मुख्यमंत्री फडणवीस के दफ्तर में देरी से मंजूर हो रही हैं। पिछले हफ्ते शिंदे ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से पुणे और मुंबई में दो अलग-अलग मुलाकातों में अपनी शिकायतें रखीं। सूत्रों के मुताबिक, इन बंद कमरे की बैठकों में शिंदे ने अपनी पार्टी के साथ हो रहे कथित भेदभाव पर खुलकर बात की। अमित शाह ने उन्हें कुछ आश्वासन दिए, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि वह अपनी शिकायतों को सार्वजनिक न करें। यह साफ है कि बीजेपी शिंदे के प्रभाव को कम करना चाहती है, और इसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं।
बीजेपी की रणनीति को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। 2024 के लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में बीजेपी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। इसके बाद विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने एकनाथ शिंदे को गठबंधन का चेहरा बनाया, ताकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना को उनके गढ़ में चुनौती दी जा सके। इस रणनीति ने काम किया, और महायुति ने शानदार जीत हासिल की। लेकिन जीत के बाद बीजेपी ने महसूस किया कि शिंदे की महत्वाकांक्षा और उनके 67 विधायकों की ताकत उनके लिए भविष्य में चुनौती बन सकती है। बीजेपी नहीं चाहती कि गठबंधन में कोई दूसरी हिंदुत्ववादी पार्टी इतनी ताकतवर हो कि वह उनकी वोट हिस्सेदारी को नुकसान पहुंचाए। यही वजह है कि बीजेपी अब अजित पवार को ज्यादा महत्व दे रही है, जिनकी विचारधारा हिंदुत्व से अलग है और जो बीजेपी के लिए कम खतरा माने जाते हैं।
शिंदे के लिए यह स्थिति आसान नहीं है। वह पहले मुख्यमंत्री रह चुके हैं, और अब उपमुख्यमंत्री की भूमिका में खुद को समायोजित करना उनके लिए मुश्किल हो रहा है। महाराष्ट्र की सियासत में पहले भी ऐसे उदाहरण देखे गए हैं, जहां बड़े नेता छोटी भूमिकाएं स्वीकार करते रहे हैं। मिसाल के तौर पर, अशोक चव्हाण 2008 में मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन बाद में 2019-2022 के बीच उद्धव ठाकरे की सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में काम किया। लेकिन शिंदे के लिए यह बदलाव स्वीकार करना आसान नहीं है। उनके पास विकल्प भी सीमित हैं। बीजेपी के 132 और अजित पवार के 41 विधायकों के साथ महायुति सरकार बेहद स्थिर है। ऐसे में शिंदे के पास अपनी शिकायतों को बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व तक ले जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
यह तनाव सिर्फ़ शिंदे और बीजेपी तक सीमित नहीं है। अजित पवार को गठबंधन में बढ़ता महत्व देखकर शिंदे के खेमे में बेचैनी है। अजित पवार वित्त मंत्री के तौर पर महत्वपूर्ण विभाग संभाल रहे हैं और उनकी योजनाएं, जैसे लाडकी बहीण योजना, ने जनता में उनकी लोकप्रियता बढ़ाई है। बीजेपी की रणनीति साफ है—वह गठबंधन में एक ऐसे साझेदार को बढ़ावा देना चाहती है, जो उनकी विचारधारा से अलग हो और भविष्य में उनके लिए चुनौती न बने। लेकिन इस रणनीति ने गठबंधन के भीतर अविश्वास को और गहरा कर दिया है।
महाराष्ट्र की जनता के लिए यह सियासी ड्रामा नया नहीं है। लेकिन इस बार यह तनाव महायुति की एकजुटता पर सवाल उठा रहा है। शिंदे अपनी पार्टी के हितों की रक्षा के लिए कितना दबाव बना पाएंगे, और बीजेपी अपनी रणनीति को कितनी कामयाबी से लागू करेगी, यह आने वाले दिन तय करेंगे। फिलहाल, यह साफ है कि महायुति गठबंधन (Mahayuti Alliance) की राह इतनी आसान नहीं है, जितनी बाहर से दिखती है।
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