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सरकारी कर्मचारियों के लिए खुला RSS का द्वार: 58 साल पुराने प्रतिबंध के हटने से क्या बदलेगा देश का राजनीतिक परिदृश्य? विपक्ष की चिंताओं और सरकार के फैसले के पीछे छिपे रहस्य का खुलासा

सरकारी कर्मचारियों के लिए खुला RSS का द्वार: 58 साल पुराने प्रतिबंध के हटने से क्या बदलेगा देश का राजनीतिक परिदृश्य? विपक्ष की चिंताओं और सरकार के फैसले के पीछे छिपे रहस्य का खुलासा

भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हो गया है। केंद्र सरकार ने एक ऐसा फैसला लिया है जो देश के राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर सकता है। यह फैसला है सरकारी कर्मचारियों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की गतिविधियों में भाग लेने की अनुमति देना। आइए इस महत्वपूर्ण फैसले के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से नजर डालें।

पिछले 58 वर्षों से, सरकारी कर्मचारियों पर RSS की गतिविधियों में शामिल होने पर रोक थी। यह प्रतिबंध 1966, 1970 और 1980 में जारी किए गए आदेशों के माध्यम से लागू किया गया था। लेकिन अब, गृह मंत्रालय ने एक नया आदेश जारी करके इन पुराने निर्देशों को संशोधित कर दिया है। इस नए आदेश के तहत, सरकारी कर्मचारी अब RSS की शाखाओं और अन्य कार्यक्रमों में हिस्सा ले सकेंगे।

यह फैसला कई लोगों के लिए आश्चर्यजनक रहा है। RSS, जो अपने आप को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है, लंबे समय से भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। संगठन के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने इस फैसले का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि RSS पिछले 99 वर्षों से राष्ट्र निर्माण और समाज सेवा में लगा हुआ है। उनका मानना है कि पहले की सरकारों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण सरकारी कर्मचारियों को RSS की गतिविधियों में भाग लेने से रोका था।

लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, इस फैसले ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। विपक्षी दलों ने इस कदम की कड़ी आलोचना की है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने इस फैसले को भाजपा और RSS के बीच की साठगांठ का हिस्सा बताया है। उन्होंने याद दिलाया कि 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद सरदार पटेल ने RSS पर प्रतिबंध लगाया था।

कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने भी इस फैसले पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि यह भाजपा सरकार का RSS को खुश करने के लिए लिया गया निर्णय है। उन्होंने चिंता जताई कि सरकार की हर संस्था में RSS के लोगों की घुसपैठ हो रही है।

AIMIM के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने भी इस फैसले का विरोध किया है। उन्होंने कहा कि RSS भारत की विविधता को नहीं मानता है और हिंदू राष्ट्र की बात करता है। उनका मानना है कि ऐसे संगठन को अनुमति नहीं मिलनी चाहिए।

बसपा प्रमुख मायावती ने इस फैसले को राजनीति से प्रेरित और संघ तुष्टीकरण का निर्णय बताया है। उन्होंने मांग की है कि इस निर्णय को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए।

इस फैसले के पीछे का तर्क क्या हो सकता है? सरकार का कहना है कि यह फैसला सरकारी कर्मचारियों को अपने नागरिक अधिकारों का उपयोग करने की स्वतंत्रता देता है। लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह फैसला सरकारी तंत्र में RSS के प्रभाव को बढ़ाएगा।

इस फैसले के दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। यह सरकारी कर्मचारियों की राजनीतिक निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर सकता है। साथ ही, यह RSS को और अधिक मजबूत बना सकता है, जो पहले से ही देश के राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

यह फैसला भारतीय लोकतंत्र के लिए एक परीक्षा की घड़ी है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह फैसला सरकारी कर्मचारियों की कार्यप्रणाली को प्रभावित करेगा और क्या इससे देश की राजनीति में कोई बड़ा बदलाव आएगा। जैसे-जैसे यह मुद्दा आगे बढ़ेगा, यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सरकार और विपक्ष इस पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं और क्या इस फैसले का कोई कानूनी चुनौती का सामना करना पड़ेगा।

लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि हम इस तरह के मुद्दों पर खुले दिमाग से विचार करें और यह सुनिश्चित करें कि हमारे संस्थान निष्पक्ष और पारदर्शी बने रहें। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह फैसला भारत के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को कैसे आकार देता है।

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