माइनॉरिटी स्कूल: महाराष्ट्र बाल अधिकार आयोग (MSCPCR) ने एक बड़ा बयान दिया है। उनका कहना है कि कई स्कूल ‘माइनॉरिटी’ होने का टैग लेकर ‘राइट टू एजुकेशन’ (RTE) जैसे सरकारी नियमों से बचने की कोशिश कर रहे हैं। आयोग चाहता है कि माइनॉरिटी स्कूल का दर्जा पाने के लिए कुछ शर्तें हों।
दरअसल, माइनॉरिटी स्कूल कम-से-कम आधी सीटें अपनी कम्युनिटी के बच्चों के लिए रख सकते हैं। उनको गरीब और पिछड़े वर्ग के बच्चों को भी एडमिशन देने की ज़रूरत नहीं होती।
आयोग की चेयरपर्सन सुसीबेन शाह ने मीटिंग में कहा कि कई स्कूल RTE एक्ट के तहत गरीब बच्चों को दाखिला देने से इंकार कर देते हैं और अपना बचाव करने के लिए माइनॉरिटी होने का बहाना बनाते हैं।
शाह ने ये भी सवाल उठाया कि कुछ इलाकों में एक ही माइनॉरिटी कम्युनिटी के इतने स्कूल क्यों हैं? क्या वहां इतनी बड़ी आबादी है उस कम्युनिटी की? उनका कहना है कि, “सरकार को चाहिए कि वो माइनॉरिटी स्कूल बनने के लिए कुछ नियम बनाए। जैसे, कुछ परसेंट सीटें उस कम्युनिटी के बच्चों के लिए होनी ही चाहिए।”
बाल अधिकार आयोग का कहना कुछ हद तक सही है। कई बार अमीर लोग इसका फायदा उठाते हैं। पर क्या सरकार ऐसे सख्त नियम बना पाएगी? कोर्ट में ये बात अटक सकती है।
2019 में भी मद्रास हाई कोर्ट ने ऐसा ही एक सरकारी आदेश रद्द कर दिया था। कुछ राज्यों ने नियम बनाया था कि माइनॉरिटी स्कूल को 25-50% स्टूडेंट्स उसी कम्युनिटी से लेने होंगे, लेकिन नेशनल कमीशन फॉर माइनॉरिटी एजुकेशनल इंस्टिट्यूशंस (NCMEI) को ये नियम पसंद नहीं आया।