Air Raid Siren: क्या आपने कभी सोचा है कि युद्ध के समय बजने वाला वह डरावना सायरन, जिसकी आवाज़ से दिल की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं, कहाँ से आया और इसका इस्तेमाल कैसे शुरू हुआ? एयर रेड सायरन (Air Raid Siren) न केवल एक चेतावनी का साधन है, बल्कि यह इतिहास, तकनीक और मानव जीवन की सुरक्षा की कहानी भी बयान करता है। भारत में 7 मई 2025 को होने वाली मॉक ड्रिल में जब यह सायरन बजेगा, तो यह नई पीढ़ी के लिए एक अनोखा अनुभव होगा। आइए, इसकी कहानी को शुरू से समझते हैं—इसके आविष्कार से लेकर वैश्विक उपयोग और भारत में इसके महत्व तक।
सायरन की कहानी शुरू होती है 18वीं शताब्दी के अंत में। 1799 में स्कॉटिश वैज्ञानिक जॉन रॉबिसन ने सबसे पहले सायरन का एक प्रारंभिक रूप बनाया, जिसे वे संगीतमय यंत्र के रूप में उपयोग करते थे। लेकिन इसे युद्ध के लिए इस्तेमाल करने का विचार तब तक नहीं आया। असल में, आधुनिक सायरन का जन्म 1819 में हुआ, जब फ्रांसीसी वैज्ञानिक चार्ल्स काग्नार्ड डी ला टूर ने मैकेनिकल सायरन (Mechanical Siren) बनाया। यह एक ऐसी मशीन थी जो हवा के दबाव से तेज़ और लगातार आवाज़ पैदा करती थी। शुरुआत में इसका उपयोग प्रयोगशालाओं और कारखानों में चेतावनी देने के लिए होता था। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) ने इसे युद्ध के मैदान का हिस्सा बना दिया। उस समय हवाई हमलों की बढ़ती संभावना ने दुनिया को एक ऐसी प्रणाली की ज़रूरत महसूस कराई, जो लोगों को तुरंत सचेत कर सके।
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) में एयर रेड सायरन (Air Raid Siren) ने पूरी दुनिया में अपनी जगह बना ली। ब्रिटेन में, जहाँ जर्मन वायुसेना के हमले आम थे, सायरन की आवाज़ लोगों के लिए जीवन और मृत्यु के बीच का अंतर बन गई। लंदन में सितंबर 1939 में पहली बार सायरन बजा, और यह एक डरावनी, ऊपर-नीचे होने वाली आवाज़ थी, जिसे ‘वेलिंग साउंड’ कहा जाता था। यह आवाज़ 8-10 किलोमीटर तक सुनाई देती थी और लोगों को तुरंत बम शेल्टर में जाने का संकेत देती थी। इसके विपरीत, एक स्थिर, एकसमान आवाज़ वाला सायरन ‘ऑल क्लियर’ का संदेश देता था, यानी खतरा टल गया। जर्मनी, अमेरिका, सोवियत संघ और जापान जैसे देशों ने भी अपने शहरों में ऐसी प्रणालियाँ स्थापित कीं। इज़रायल जैसे देशों में, जो आज भी संघर्षों का सामना करते हैं, सायरन की यह परंपरा बदस्तूर जारी है। वहाँ की ‘रेड कलर’ प्रणाली रॉकेट हमलों से पहले 25 सेकंड की चेतावनी देती है।
एयर रेड सायरन की आवाज़ इतनी प्रभावशाली होती है कि यह न केवल ध्यान खींचती है, बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से भी गहरा असर डालती है। इसकी ऊपर-नीचे वाली आवाज़, जो लगभग तीन मिनट तक चलती है, खतरे की गंभीरता को दर्शाती है। इज़रायल-हमास युद्ध (2023) में कुछ बुजुर्गों को सायरन की आवाज़ सुनकर दिल का दौरा पड़ने की खबरें सामने आईं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी ऐसी घटनाएँ दर्ज की गई थीं। यह आवाज़ इतनी तीव्र होती है कि यह दूर-दूर तक सुनाई देती है और लोगों में तुरंत सतर्कता और भय पैदा करती है। लेकिन यह डर ही लोगों को त्वरित कार्रवाई के लिए प्रेरित करता है, जैसे कि शेल्टर में जाना या सुरक्षित स्थान पर छिपना।
भारत में एयर रेड सायरन (Air Raid Siren) का इतिहास भी कम दिलचस्प नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापान ने कोलकाता और अंडमान पर हमला किया, ब्रिटिश सरकार ने 1942-43 में कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में पहली बार सायरन लगाए। ये सायरन उस समय शहरों की छतों, रेलवे स्टेशनों और सरकारी इमारतों पर स्थापित किए गए थे। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद इनका उपयोग और बढ़ गया। खासकर 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्धों में, जब पाकिस्तानी वायुसेना ने पंजाब, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली जैसे क्षेत्रों में हवाई हमले किए, सायरन ने लोगों को सचेत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मुंबई में उस समय 400 से ज़्यादा सायरन लगाए गए थे, जो एक केंद्रीय नियंत्रण कक्ष से संचालित होते थे। उस दौर में लोग इसकी डरावनी आवाज़ को सुनकर तुरंत बंकरों या सुरक्षित स्थानों की ओर भागते थे।
1971 के युद्ध के बाद भारत में सायरन का उपयोग कम हो गया, लेकिन इन्हें पूरी तरह हटाया नहीं गया। मुंबई, पुणे, नासिक, और थाणे जैसे शहरों में आज भी कुछ पुराने सायरन मौजूद हैं, हालाँकि इनमें से कई अब काम नहीं करते। 2006 में मुंबई ट्रेन धमाकों के शिकार लोगों को श्रद्धांजलि देने के लिए इनका उपयोग किया गया था। हालाँकि, तकनीकी प्रगति ने इन सायरन को पुराना बना दिया है। पहले ये टेलीफोन लाइनों से जुड़े होते थे, लेकिन 2005 की मुंबई बाढ़ ने कई कनेक्शनों को नष्ट कर दिया। आज इन्हें मैन्युअल रूप से संचालित करना पड़ता है, जो आपात स्थिति में समय की बर्बादी का कारण बन सकता है। फिर भी, भारत सरकार समय-समय पर इनकी जाँच करती है। 7 मई 2025 को होने वाली मॉक ड्रिल में 244 सिविल डिफेंस ज़िलों में सायरन बजाए जाएँगे, ताकि लोगों को युद्ध जैसी स्थिति में तैयार किया जा सके।
वैश्विक स्तर पर, सायरन की तकनीक में भी बदलाव आया है। पहले ये मैकेनिकल सायरन थे, जो हवा के दबाव या इलेक्ट्रिक मोटर से चलते थे। आज इलेक्ट्रॉनिक सायरन का उपयोग होता है, जो डिजिटल सिग्नल और रेडियो फ्रीक्वेंसी पर काम करते हैं। कुछ देशों में, जैसे नीदरलैंड और नॉर्वे, हर महीने सायरन की जाँच की जाती है। जापान में इलेक्ट्रॉनिक सायरन सुनामी और मिसाइल हमलों की चेतावनी देते हैं। मलेशिया और थाईलैंड जैसे देशों में इनका उपयोग बाढ़ और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के लिए भी होता है। इज़रायल में सायरन भूकंप और रॉकेट हमलों की चेतावनी देते हैं। लेकिन भारत में सायरन मुख्य रूप से युद्ध या आतंकी हमलों से जुड़े रहे हैं।
एयर रेड सायरन (Air Raid Siren) की कहानी सिर्फ एक मशीन की नहीं, बल्कि मानवता के उस संघर्ष की है, जो सुरक्षा और अस्तित्व के लिए सदियों से चल रहा है। चाहे वह लंदन की सड़कों पर बमबारी की चेतावनी हो, इज़रायल में रॉकेट हमलों का अलर्ट हो, या भारत में 1971 के युद्ध की यादें, सायरन की आवाज़ हमेशा एक ही संदेश देती है—सतर्क रहो, सुरक्षित रहो। भारत में इसकी मॉक ड्रिल नई पीढ़ी को यह समझाने का मौका है कि शांति के समय भी हमें तैयार रहना चाहिए।
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