भारत में कोरोना महामारी के पहले वर्ष की भयावहता अब एक नए मोड़ पर आ गई है। एडवांस साइंस पब्लिकेशन की एक हालिया रिपोर्ट ने देश को झकझोर कर रख दिया है। यह रिपोर्ट दावा करती है कि 2020 में, जब कोरोना ने पहली बार भारत में दस्तक दी, तब लगभग 12 लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई। यह आंकड़ा सरकारी आंकड़ों से 8 गुना अधिक है, जो एक गंभीर चिंता का विषय है।
19 जुलाई को प्रकाशित इस रिपोर्ट ने न केवल सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठाए हैं, बल्कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुमानों को भी पीछे छोड़ दिया है। WHO ने पहले ही यह कहा था कि भारत में कोरोना से मरने वालों की संख्या 20 से 65 लाख के बीच हो सकती है। लेकिन यह नई रिपोर्ट इससे भी आगे जाकर एक चौंकाने वाला दावा करती है।
रिपोर्ट का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें कोरोना का प्रभाव लिंग के आधार पर भी देखा गया है। इसके अनुसार, महामारी ने पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रभावित किया। पुरुषों की औसत जीवन प्रत्याशा 2.1 वर्ष कम हुई, जबकि महिलाओं की 3 वर्ष। यह आंकड़ा बताता है कि महामारी ने न केवल जीवन लिया, बल्कि जीवन की गुणवत्ता को भी गंभीर रूप से प्रभावित किया।
स्वाभाविक रूप से, इस रिपोर्ट ने सरकारी गलियारों में हलचल मचा दी है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए इन आंकड़ों को भ्रामक और अस्वीकार्य करार दिया है। मंत्रालय का कहना है कि यह रिपोर्ट अपुष्ट अनुमानों पर आधारित है और इसे किसी भी तरह से वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2020 के पहले चरण और 2021 में डेल्टा लहर के दौरान कुल मिलाकर 4.81 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी।
यह विवाद यहीं नहीं रुकता। सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के निदेशक प्रभात झा ने WHO के आंकड़ों का समर्थन करते हुए कहा है कि भारत में कोविड-19 के कारण लगभग 40 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी, जिनमें से 30 लाख लोग अकेले डेल्टा लहर में मारे गए थे। यह बयान इस बहस को और भी जटिल बना देता है।
इस पूरे विवाद में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि आखिर सही आंकड़े क्या हैं? क्या सरकार वास्तव में मृत्यु के आंकड़ों को कम करके बता रही है? या फिर ये वैज्ञानिक अध्ययन अतिरंजित अनुमान लगा रहे हैं? इन सवालों का जवाब न केवल आंकड़ों की सटीकता के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि भविष्य में महामारियों से निपटने की रणनीतियों को तैयार करने के लिए भी अत्यंत आवश्यक है।
इस विवाद का एक और पहलू यह है कि यह भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की क्षमता पर भी सवाल उठाता है। अगर वास्तव में इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हुई है, तो क्या हमारी स्वास्थ्य सेवाएं इतनी कमजोर थीं कि वे इस संकट से निपटने में असमर्थ रहीं? या फिर यह महामारी की प्रकृति थी जो इतनी घातक साबित हुई?
अंत में, यह विवाद हमें एक बड़े नैतिक प्रश्न की ओर ले जाता है। क्या सरकार को जनता के साथ पूरी पारदर्शिता बरतनी चाहिए, चाहे परिणाम कितने भी कठोर क्यों न हों? या फिर कुछ मामलों में सच्चाई को छिपाना उचित है ताकि जनता में अफरातफरी न फैले?
यह विवाद निश्चित रूप से जल्द ही समाप्त होने वाला नहीं है। आने वाले दिनों में इस पर और अधिक बहस होने की संभावना है। लेकिन इस बहस से एक बात स्पष्ट है – हमें अपनी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को मजबूत करने और भविष्य की महामारियों के लिए बेहतर तैयारी करने की आवश्यकता है। साथ ही, हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हम सटीक आंकड़े एकत्र करें और उन्हें पारदर्शी तरीके से जनता के सामने रखें। केवल तभी हम भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बच सकते हैं और बेहतर तरीके से उनका सामना कर सकते हैं।
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