महाराष्ट्र

Crime News: 9 साल पहले हुई थी पत्नी की हत्या, लेकिन नगर निगम ने मृत्यु प्रमाण पत्र देने से मना कर दिया

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Crime News: एक पति की अपनी पत्नी के लिए न्याय की लड़ाई ने 9 साल बाद आखिरकार हत्यारों को सलाखों के पीछे पहुंचाया, लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। अब राजू गोर को एक नई जंग लड़नी पड़ रही है – अपनी पत्नी अश्विनी के मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए। ये कहानी न केवल दिल दहला देने वाली है, बल्कि ये भी दिखाती है कि व्यवस्था की खामियां इंसाफ के रास्ते को कितना जटिल बना सकती हैं।

क्या है पूरा मामला?
सहायक पुलिस निरीक्षक अश्विनी बिंद्रा-गोर की 11 अप्रैल, 2016 को मीरा-भायंदर के न्यू गोल्डन नेस्ट रोड पर मुकुंद प्लाजा में बेरहमी से हत्या कर दी गई थी। हत्यारा कोई और नहीं, बल्कि उनके सहकर्मी पुलिस निरीक्षक अभय कुरुंदकर थे। अभय ने न केवल अश्विनी की हत्या की, बल्कि सबूत मिटाने के लिए उनके शव को टुकड़ों में काटकर वसई क्रीक में फेंक दिया। इस जघन्य अपराध में उनके दो साथियों, कुंदन भंडारी और महेश फाल्निकर, ने भी मदद की।

न्यायपालिका ने इस मामले में कड़ा रुख अपनाया। अभय को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, जबकि उसके दोनों सहयोगियों को सात-सात साल की जेल हुई। लेकिन इस जीत के बावजूद, राजू गोर के लिए मुश्किलें खत्म नहीं हुईं।

क्यों नहीं मिल रहा मृत्यु प्रमाण पत्र?
चूंकि अश्विनी का शव कभी बरामद नहीं हुआ, इसलिए पनवेल नगर निगम ने मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने से इनकार कर दिया। उनका तर्क है कि, ये घटना मीरा-भायंदर में हुई थी, इसलिए ये उनके क्षेत्राधिकार में नहीं आता। इस जवाब ने राजू को एक नई लड़ाई में धकेल दिया। अब वे मीरा-भायंदर नगर आयुक्त और अतिरिक्त तहसीलदार के पास इस प्रमाण पत्र के लिए गुहार लगा रहे हैं।

परिवार पर क्या बीत रही है?
राजू की 16 साल की बेटी के लिए ये मृत्यु प्रमाण पत्र बेहद जरूरी है। शिक्षा, बीमा दावों और अन्य कानूनी प्रक्रियाओं के लिए इस दस्तावेज की जरूरत पड़ती है। राजू ने बताया, “मैंने अश्विनी के लिए इंसाफ पाने के लिए 9 साल तक लड़ाई लड़ी। अब मुझे उसे मृत घोषित कराने और मृत्यु प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए एक और जंग लड़नी पड़ रही है।”

एक सवाल जो मन को कचोटता है
ये मामला हमें सोचने पर मजबूर करता है कि, अगर एक पति को अपनी पत्नी के हत्यारों को सजा दिलाने के बाद भी इतनी लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, तो आम आदमी का क्या हाल होगा? क्या हमारी व्यवस्था ऐसी नहीं होनी चाहिए जो पीड़ितों के लिए और मुश्किलें खड़ी न करें?

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