Effects of overworking: आजकल यह बहस तेज हो गई है कि क्या ज्यादा काम करने से कोई देश तेजी से तरक्की कर सकता है या फिर यह सिर्फ लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भारी पड़ता है। हाल ही में इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायणमूर्ति ने सुझाव दिया कि भारत के युवाओं को हर हफ्ते 70 घंटे काम करना चाहिए, जबकि एल एंड टी के सीईओ एस.एन. सुब्रह्मण्यम ने इसे 90 घंटे तक बढ़ाने की बात कही। इस मुद्दे पर खूब चर्चाएं हो रही हैं। कुछ लोगों का मानना है कि ज्यादा काम करने से देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, वहीं दूसरी तरफ कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इससे लोगों की मानसिक और शारीरिक सेहत पर बुरा असर पड़ेगा।
भारत में इस समय औसतन 42 घंटे प्रति सप्ताह काम किया जाता है, लेकिन कुछ राज्यों में यह आंकड़ा अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, केरल में सरकारी कर्मचारी सप्ताह में औसतन 36 घंटे ही काम करते हैं, जबकि दमन और दीव में शहरी क्षेत्रों के लोग रोजाना 8.48 घंटे तक काम करते हैं। वहीं, दादरा और नगर हवेली में ग्रामीण इलाकों के लोग 9.49 घंटे तक काम कर रहे हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या ज्यादा काम करने से सच में देश की अर्थव्यवस्था को फायदा होगा या फिर यह सिर्फ लोगों की जिंदगी को और कठिन बना देगा?
क्या ज्यादा काम करने से देश का विकास होगा?
कुछ लोगों का मानना है कि अगर भारत के लोग ज्यादा घंटे काम करेंगे तो देश की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ेगी। इसका तर्क यह दिया जाता है कि जो देश तेजी से विकसित हो रहे हैं, वहां के लोग भी ज्यादा घंटे काम करते हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कामकाजी घंटे वियतनाम, चीन, मलेशिया और फिलीपींस जैसे देशों के बराबर हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं तेजी से बढ़ रही हैं और वहां के लोग भी औसतन 42 से 50 घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं।
लेकिन अगर यूरोप और अमेरिका जैसे विकसित देशों को देखें तो वहां काम करने के घंटे काफी कम हैं। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के देशों में औसतन 33 घंटे प्रति सप्ताह काम किया जाता है, और फिर भी वहां की अर्थव्यवस्था मजबूत बनी हुई है।
इतिहास में झांकें तो यह साफ होता है कि पहले लोग सप्ताह में 60 से 70 घंटे तक काम किया करते थे, लेकिन धीरे-धीरे इस मॉडल को बदला गया। कई देशों ने महसूस किया कि ज्यादा घंटे काम करने से उत्पादकता बढ़ने की बजाय घट जाती है, और लोग मानसिक तनाव और शारीरिक बीमारियों का शिकार होने लगते हैं।
क्या ज्यादा काम करना लोगों की सेहत पर असर डालता है?
बहुत ज्यादा काम करने से सिर्फ आर्थिक फायदा नहीं होता, बल्कि इसके कुछ बुरे प्रभाव भी होते हैं। जापान और दक्षिण कोरिया इसके बड़े उदाहरण हैं।
जापान में बहुत ज्यादा काम करने से होने वाली मौतों के लिए एक अलग शब्द इस्तेमाल किया जाता है – “करोशी”, जिसका मतलब है “अत्यधिक काम के कारण मौत”। दक्षिण कोरिया में भी इसी तरह का शब्द है – “ग्वारोसा”, जिसका मतलब है “ओवरवर्क से हुई मौत”।
भारत में अभी तक इस तरह का कोई शब्द नहीं बना है, लेकिन बहुत ज्यादा काम करने की वजह से तनाव, डिप्रेशन और हार्ट अटैक जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं।
भारत के आर्थिक सर्वेक्षण 2024-2025 में यह बताया गया कि जो लोग रोजाना 12 घंटे या उससे ज्यादा काम करते हैं, उनमें मानसिक तनाव और अन्य स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ जाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, हर साल दुनियाभर में लगभग 12 अरब कार्य दिवस सिर्फ डिप्रेशन और चिंता की वजह से बर्बाद हो जाते हैं, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को खरबों डॉलर का नुकसान होता है।
क्या ज्यादा घंटे काम करना सही समाधान है?
अगर भारत को आर्थिक रूप से आगे बढ़ना है तो सिर्फ काम के घंटे बढ़ाने से कोई हल नहीं निकलेगा। जरूरी यह है कि लोग ज्यादा स्मार्ट तरीके से काम करें।
कई देशों में फ्लेक्सिबल वर्किंग ऑवर्स और 4-दिन के वर्क वीक की चर्चा हो रही है, जिससे लोग कम समय में ज्यादा उत्पादक बन सकें।
इसके अलावा, कंपनियों को यह भी देखना होगा कि वे अपने कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें। अगर लोग ज्यादा तनाव में रहेंगे, तो वे कम उत्पादक बन जाएंगे और इसका असर पूरे देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
Effects of overworking
काम के घंटे बढ़ाने की बहस नई नहीं है, लेकिन इसका समाधान यह नहीं कि लोगों को दिन-रात सिर्फ काम में ही लगा दिया जाए। भारत को ज्यादा काम करने वाले देशों की बजाय ज्यादा स्मार्ट तरीके से काम करने वाले देशों से सीखना चाहिए।
अगर हम अपने काम करने के तरीकों में सुधार लाएं, नई तकनीकों का इस्तेमाल करें और कर्मचारियों की मानसिक और शारीरिक सेहत का ध्यान रखें, तो देश की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ सकती है बिना लोगों पर ज्यादा बोझ डाले।
काम और जिंदगी के बीच संतुलन बनाए रखना भी जरूरी है, क्योंकि आखिर में एक खुशहाल और स्वस्थ समाज ही किसी देश की असली ताकत होता है।
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