मुंबई

“विकलांगों के हक पर सरकारी उदासीनता!” महाराष्ट्र सरकार की नींद तोड़ी हाई कोर्ट ने

"विकलांगों के हक पर सरकारी उदासीनता!" महाराष्ट्र सरकार की नींद तोड़ी हाई कोर्ट ने

मुंबई के चहल-पहल भरे चौराहों और व्यस्त सड़कों के बीच अक्सर विकलांग व्यक्तियों का संघर्ष नज़रअंदाज़ हो जाता है। सरकार भले ही कानून बनाकर इन्हें अधिकार देने का दावा करे, पर ज़मीनी हकीकत कुछ और ही होती है। मुंबई हाई कोर्ट ने हाल ही में महाराष्ट्र सरकार को उनकी इसी उदासीनता के लिए कटघरे में खड़ा किया है।

मामला ‘विकलांग व्यक्ति अधिकार अधिनियम, 2016’ के तहत गठित होने वाले अनिवार्य सलाहकार बोर्ड से जुड़ा है। अदालत को चौंकाने वाली जानकारी मिली कि यह बोर्ड पिछले चार वर्षों से निष्क्रिय है! कोर्ट ने सख्त लहजे में पूछा, “क्या ऐसे कल्याणकारी कानून केवल कोरे दस्तावेज़ बनकर रह जाएंगे? समाज के एक हिस्से के अधिकारों के प्रति इतनी लापरवाही क्यों?”

अदालत ने सिर्फ बोर्ड की निष्क्रियता पर ही नहीं, बल्कि बुनियादी सुविधाओं के अभाव पर भी सरकार को घेरा। मुंबई में बस स्टॉप और टर्मिनलों को विकलांगों के लिए सुलभ बनाने संबंधी नियमों के क्रियान्वयन (implementation) पर भी राज्य सरकार और बीएमसी से जवाब मांगा गया है।

कोर्ट ने सरकार को दो हफ्तों के अंदर हलफनामा दाखिल करने के आदेश दिए हैं। बोर्ड कानूनी रूप से हर छह महीने में बैठक करना अनिवार्य है, पर 2018-19 में केवल दो बैठकों के बाद ही इस पर ताला लग गया।

‘एक्सेस टू होप’ नामक एनजीओ ने अदालत का ध्यान इस मुद्दे की ओर खींचा था। फुटपाथों पर लगे अवरोधक व्हीलचेयर उपयोगकर्ताओं के लिए बड़ी मुश्किलें पैदा करते हैं। बीएमसी कोर्ट को इन्हें हटाने का आश्वासन दे चुकी है।

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