Hindi Imposition Marathi Protests in Maharashtra: महाराष्ट्र, एक ऐसा राज्य जहां भाषा और संस्कृति हमेशा से उसकी पहचान का गौरव रही है, आज एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। इस बार मुद्दा है हिंदी भाषा को स्कूलों में तीसरी भाषा के रूप में लागू करने का। इस फैसले ने मराठी भाषा के समर्थकों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया है। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) और शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) ने हिंदी थोपने (हिंदी थोपना/Hindi imposition) के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। दोनों दलों ने अलग-अलग तारीखों पर विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है, लेकिन उनकी मांग एक ही है—मराठी भाषा की गरिमा को बचाना और हिंदी को अनिवार्य करने के फैसले को वापस लेना।
यह सब तब शुरू हुआ जब महाराष्ट्र सरकार ने 16 अप्रैल, 2025 को एक सरकारी आदेश (जीआर) जारी किया, जिसमें कहा गया कि मराठी और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पहली से पांचवीं कक्षा तक हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाएगा। यह फैसला राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत त्रिभाषा सूत्र (three-language formula/त्रिभाषा सूत्र) का हिस्सा था। लेकिन इस आदेश ने मराठी भाषा के समर्थकों और विपक्षी दलों में आक्रोश पैदा कर दिया। कई लोगों ने इसे मराठी भाषा और संस्कृति पर हमला माना। मराठी लेखकों, कलाकारों और राजनेताओं ने इस कदम को “हिंदी थोपना” करार दिया। जुलाई में, सरकार ने इस आदेश में संशोधन किया, जिसमें कहा गया कि हिंदी “सामान्य रूप से” तीसरी भाषा होगी, लेकिन अगर किसी कक्षा में कम से कम 20 छात्र किसी अन्य भारतीय भाषा को चुनना चाहें, तो उसकी व्यवस्था की जाएगी। फिर भी, इस संशोधन को कई लोग केवल दिखावटी मानते हैं।
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने इस मुद्दे पर सबसे आक्रामक रुख अपनाया। उन्होंने 5 जुलाई को मुंबई के गिरगांव चौपाटी से एक विशाल मोर्चा निकालने की घोषणा की। इस मोर्चे का मकसद मराठी भाषा के सम्मान को बचाना और हिंदी को अनिवार्य करने के फैसले का विरोध करना है। राज ठाकरे ने कहा कि यह लड़ाई केवल हिंदी के खिलाफ नहीं है, बल्कि किसी भी भाषा को जबरदस्ती थोपने के खिलाफ है। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि जब गुजरात जैसे राज्यों में हिंदी को अनिवार्य नहीं किया गया, तो महाराष्ट्र में ऐसा क्यों हो रहा है। उनके मुताबिक, यह फैसला मराठी और गैर-मराठी लोगों के बीच विभाजन पैदा करने की साजिश का हिस्सा है। इस मोर्चे में सभी राजनीतिक दलों, लेखकों और कलाकारों को शामिल होने का न्योता दिया गया है, ताकि मराठी पहचान (Marathi identity/मराठी पहचान) को मजबूत किया जा सके।
शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के नेता उद्धव ठाकरे ने भी इस मुद्दे पर कड़ा रुख अपनाया। उन्होंने 7 जुलाई को आजाद मैदान में एक विरोध प्रदर्शन की घोषणा की, जिसे मराठी अभ्यास केंद्र के कार्यकर्ता दीपक पवार ने आयोजित किया है। उद्धव ने इस फैसले को “भाषाई आपातकाल” करार दिया और इसे मराठी संस्कृति पर हमला बताया। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी पार्टी हिंदी भाषा के खिलाफ नहीं है, बल्कि उसकी अनिवार्यता के खिलाफ है। उद्धव ने कहा कि मुंबई ने हिंदी सिनेमा को हमेशा गले लगाया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी को जबरदस्ती थोपा जाए। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि बीजेपी एक भाषा, एक नेता और एक पार्टी की विचारधारा को बढ़ावा दे रही है, जो महाराष्ट्र की सांस्कृतिक विविधता के खिलाफ है।
इस विवाद में मराठी साहित्यकारों और शिक्षाविदों की आवाज भी तेज हो रही है। मराठी भाषा अभ्यास केंद्र के दीपक पवार ने इसे “बैकडोर हिंदी थोपना” कहा। उन्होंने बताया कि 20 छात्रों की न्यूनतम संख्या वाला नियम व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि ज्यादातर स्कूलों में इतने छात्र किसी अन्य भाषा के लिए एक साथ नहीं चुनेंगे। प्रसिद्ध लेखक भालचंद्र नेमाडे ने इसे “अवैज्ञानिक” और “बच्चों के लिए हानिकारक” बताया। उनके मुताबिक, छह साल की उम्र में तीन भाषाएं सीखना बच्चों के लिए भ्रम पैदा कर सकता है। इसी तरह, भाषा सलाहकार समिति के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत देशमुख ने भी इस फैसले का विरोध किया और कहा कि यह मराठी भाषा की उपेक्षा करता है।
यह कोई नया विवाद नहीं है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा का गौरव हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रहा है। 1950 के दशक में संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन ने मराठी भाषी राज्य की मांग को लेकर एक लंबी लड़ाई लड़ी थी, जिसके परिणामस्वरूप 1960 में महाराष्ट्र राज्य का गठन हुआ। उस आंदोलन की भावना आज भी मराठी लोगों के दिलों में जिंदा है। कई लोग मानते हैं कि हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में लागू करना उस ऐतिहासिक संघर्ष को कमजोर करने की कोशिश है। विपक्षी नेता, जैसे महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष हर्षवर्धन सपकाल, ने इस फैसले को “मराठी लोगों के साथ धोखा” बताया। उन्होंने इसे बीजेपी की “हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान” विचारधारा का हिस्सा करार दिया।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस फैसले का बचाव करते हुए कहा कि हिंदी को अनिवार्य नहीं किया गया है और यह केवल एक विकल्प है। उन्होंने यह भी कहा कि मराठी हर स्कूल में अनिवार्य रहेगी। लेकिन विपक्ष और मराठी समर्थकों का कहना है कि यह केवल दिखावटी छूट है, क्योंकि अन्य भाषा चुनने की शर्तें इतनी जटिल हैं कि ज्यादातर स्कूल हिंदी को ही लागू करेंगे। इस विवाद ने स्थानीय निकाय चुनावों से पहले राजनीतिक माहौल को और गर्म कर दिया है। खासकर मुंबई जैसे शहर में, जहां मराठी और गैर-मराठी आबादी के बीच संतुलन हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रहा है, यह मसला और भी गंभीर हो गया है।