कश्मीर, जिसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है, अपने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। आज हम इस सवाल का जवाब तलाशेंगे कि कैसे कश्मीर के हिंदू बहुल समाज ने इस्लाम धर्म अपनाया और क्यों आज भी कई कश्मीरी मुस्लिम अपने नाम के साथ ‘पंडित’ सरनेम जोड़ते हैं।
प्राचीन काल में कश्मीर हिंदू धर्म का प्रमुख केंद्र था। यहां की संस्कृति और जीवनशैली पर वैदिक परंपराओं का गहरा प्रभाव था। नीलमत पुराण और कल्हण की राजतरंगिणी जैसे ग्रंथों में कश्मीर के राजाओं और उनकी धार्मिक नीतियों का उल्लेख मिलता है। कश्मीर में मुख्य रूप से शिव की पूजा होती थी। यहां का कश्मीरी शैव दर्शन न केवल भारत बल्कि विश्व के दार्शनिक विचारों का प्रमुख केंद्र था। धार्मिक स्थलों और संस्कारों में गहरी आस्था थी।
बौद्ध धर्म का प्रभाव
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक के शासनकाल में कश्मीर में बौद्ध धर्म का आगमन हुआ। कश्मीर धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के विद्वानों और शिक्षण संस्थानों का केंद्र बन गया। ये वही समय था जब बौद्ध धर्म ने एशिया के कई हिस्सों में अपनी जड़ें जमाईं। हालांकि, बौद्ध धर्म के प्रभाव के बावजूद कश्मीर में हिंदू ब्राह्मण समुदाय हमेशा एक प्रभावशाली वर्ग रहा। इस समुदाय के लोग शिक्षण, धर्म और शासन के मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
इस्लाम का आगमन: बदलाव की शुरुआत
13वीं शताब्दी के बाद, इस्लाम ने कश्मीर में अपनी जगह बनानी शुरू की। सैय्यद और सूफी संत, विशेषकर मीर सैय्यद अली हमदानी, कश्मीर में इस्लाम के प्रचार-प्रसार में अग्रणी रहे। इन सूफी संतों ने अपने प्रेम और सहिष्णुता के संदेशों के जरिए कई लोगों का दिल जीत लिया। समाज में हो रहे सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों के कारण धीरे-धीरे बड़ी संख्या में लोगों ने इस्लाम धर्म को अपनाया। इस समय तक कश्मीर में कई हिंदू ब्राह्मण परिवार इस्लाम में परिवर्तित हो चुके थे।
‘पंडित’ सरनेम का मुस्लिम समाज में प्रवेश
इस्लाम स्वीकार करने के बावजूद, कई ब्राह्मण परिवारों ने अपने पारंपरिक सरनेम जैसे पंडित, बट, भट, धर, और लोन को कायम रखा। ये उनकी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा था। इतिहासकार मोहम्मद देन फौक अपनी किताब “कश्मीर क़ौम का इतिहास” में लिखते हैं कि जब कश्मीर में इस्लाम फैला, तो यहां के ब्राह्मण वर्ग ने धीरे-धीरे धर्म परिवर्तन किया। लेकिन उन्होंने ‘पंडित’ सरनेम को अपनी शान के तौर पर बनाए रखा। इन मुसलमान पंडितों को समाज में उच्च स्थान दिया गया और इन्हें सम्मान से ‘ख्वाजा’ भी कहा जाने लगा।
हिंदू से मुस्लिम तक का सफर: धर्म और पहचान
14वीं शताब्दी में कश्मीर में सुल्तान सिकंदर बुतसिकान के शासनकाल में हिंदुओं पर अत्यधिक दबाव डाला गया। कई लोगों को कश्मीर छोड़कर देश के अन्य हिस्सों में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान कुछ लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया, लेकिन अपनी जड़ों से पूरी तरह अलग नहीं हुए। इसी कारण, जो मुसलमान बने, उन्होंने अपने सरनेम जैसे ‘पंडित’, ‘भट’, और ‘लोन’ को बनाए रखा। ये उनके पूर्वजों की पहचान को दर्शाता था।
कश्मीरी पंडित: हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों की धरोहर
कश्मीरी पंडित केवल हिंदू नहीं हैं, बल्कि मुस्लिम समुदाय का भी एक हिस्सा हैं।
बनवासी कश्मीरी पंडित: वे पंडित जो मुस्लिम शासन के अत्याचारों के कारण कश्मीर से पलायन कर गए।
मलमासी पंडित: वे पंडित जिन्होंने कश्मीर में रहते हुए भी अपनी पहचान बनाए रखी।
मुस्लिम कश्मीरी पंडित: वे पंडित जिन्होंने इस्लाम अपनाया, लेकिन अपनी सांस्कृतिक पहचान को नहीं छोड़ा।
आज कश्मीर की विविधता उसकी सबसे बड़ी ताकत है। यहां हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों की परंपराएं कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं। ‘पंडित’ सरनेम केवल एक टाइटल नहीं, बल्कि एक पूरी ऐतिहासिक यात्रा का प्रतीक है।
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