इस्लामिक कैलेंडर के आखिरी महीने जिलहिज्जा की 18वीं तारीख को ईद-ए-ग़दीर मनाई जाती है। यह दिन इस्लाम के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद मुस्तफा द्वारा हजरत अली को अपना जानशीन घोषित करने की याद में मनाया जाता है। यह ऐलान हज से लौटते समय गदीर-ए-खूम नाम की जगह पर हुआ था, जहां लगभग 1 लाख 24 हजार हाजियों के बीच यह घोषणा की गई थी। इस महत्वपूर्ण दिन के बाद से ही, हर साल 18 जिलहिज्जा को ईद-ए-ग़दीर मनाई जाती है।
कौन थे हज़रत अली?
हजरत अली का जन्म काबा के अंदर हुआ था, जो इस्लामिक इतिहास में एक अनूठी घटना है। उनके पिता हजरत अबू तालिब ने पैगंबर मोहम्मद को बचपन से पाला और हर तरह से उनकी हिफाजत की। हजरत अली के बारे में पैगंबर मोहम्मद ने कहा था, “मैं इल्म का शहर हूं और अली उसका दरवाजा हैं।” इसका मतलब था कि मोहम्मद तक पहुंचने के लिए अली का मार्गदर्शन आवश्यक है।
हजरत अली की महत्वपूर्ण लड़ाइयाँ
हजरत अली ने इस्लाम की रक्षा के लिए कई महत्वपूर्ण लड़ाइयाँ लड़ीं, जैसे जंग-ए-खैबर, जंग-ए-बद्र, और जंग-ए-ख़ंदक। वे पैगंबर मोहम्मद के चचाजात भाई और उनकी बेटी बीबी फातिमा ज़हरा के पति भी थे। ईद-ए-ग़दीर के बाद, शिया मुस्लिम हजरत अली को पहला इमाम मानने लगे, जबकि सुन्नी मुस्लिम उन्हें पैगंबर मोहम्मद के निधन के बाद चौथा खलीफा मानते हैं।
हजरत अली और उनका परिवार
हजरत अली को इंसाफ के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। वे गरीबों की मदद करते थे और मजलूमों के साथ खड़े रहते थे। काबा में जन्मे हजरत अली को मस्जिद में नमाज़ पढ़ते समय अब्दुर रहमान इब्ने मुलजिम ने तलवार से हमला कर शहीद कर दिया था। इस घटना के बाद भी हजरत अली ने अपने कातिल के लिए शरबत मंगवाया ताकि वह घबराए नहीं।
बीबी फातिमा और उनके बलिदान
हजरत अली की पत्नी बीबी फातिमा ज़हरा, जो पैगंबर मोहम्मद की बेटी थीं, को भी अत्याचार सहना पड़ा। उनके घर के दरवाजे पर आग लगाई गई, जिससे उनके पेट में पल रहे बच्चे की मौत हो गई और उनकी पसलियाँ टूट गईं। लगभग 75-100 दिनों में उनकी भी शहादत हो गई।
इमाम हुसैन और इमाम हसन का बलिदान
मोहर्रम के महीने में इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शहादत को याद किया जाता है। वे तीन दिन तक भूखे-प्यासे रहे और अंततः शहीद हो गए। इमाम हुसैन और इमाम हसन हजरत अली और बीबी फातिमा के बेटे थे। इमाम हसन को भी ज़हर देकर मार दिया गया था।
मोहम्मद साहब की अंतिम सलाह
पैगंबर मोहम्मद ने अपनी अंतिम सलाह में कहा था, “एक मेरा कुरान और दूसरा मेरे अहलैबैत यानी परिवार को ना छोड़ना।” उन्होंने अपनी ज़िंदगी में जंग-ए-मुबाहिला में अपने परिवार के साथ जीत हासिल की थी।
हजरत अली की सार्वभौमिक मान्यता
हजरत अली को सिर्फ मुस्लिम ही नहीं बल्कि हिंदू और अन्य धर्मों के लोग भी मानते हैं। उनकी बहादुरी और इंसानियत के प्रति उनके समर्पण के कारण वे आज भी सभी के दिलों में जीवित हैं। कई कव्वालियों में अली मौला, अली मौला के रूप में उनका नाम गाया जाता है। हजरत अली के बारे में कहा जाता है कि वे ज़मीन से ज्यादा आसमान के रास्ते जानते थे और वे इंसानियत के लिए हमेशा खड़े रहते थे।
ईद-ए-ग़दीर का महत्व इस्लामिक इतिहास में अनमोल है और यह हमें हजरत अली और उनके परिवार के बलिदानों की याद दिलाता है। यही कारण है कि आज भी यह त्योहार मुस्लिमों के साथ-साथ हिंदू और अन्य धर्मों के लोग भी बड़े धूमधाम से मनाते हैं।
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