Ambedkar Jayanti: 14 अप्रैल का दिन भारत के लिए खास है। यह दिन डॉ. भीमराव आंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) की जयंती का है, जिन्होंने न केवल भारत के संविधान को आकार दिया, बल्कि समाज में बराबरी और सम्मान की नींव रखी। उनकी जिंदगी की कहानी किसी चमत्कार से कम नहीं। एक ऐसा बच्चा, जिसे स्कूल में किताब छूने तक की इजाजत नहीं थी, उसने न सिर्फ दुनिया भर की किताबों को गले लगाया, बल्कि एशिया की सबसे बड़ी निजी लाइब्रेरी अपने नाम की। यह कहानी उनके बचपन की मुश्किलों, उनकी ज्ञान की भूख और उनके हौसले की है। आइए, इस प्रेरक सफर को करीब से देखें।
डॉ. आंबेडकर का बचपन आसान नहीं था। जब वह स्कूल जाते थे, तब जातिगत भेदभाव उनके लिए हर कदम पर बाधा बनकर खड़ा था। कक्षा में उन्हें जमीन पर बैठना पड़ता था, क्योंकि चटाई तक उनके लिए नहीं थी। बारिश के दिनों में कीचड़ और पानी में बैठकर पढ़ना उनकी रोज की जिंदगी का हिस्सा था। सबसे दुखद बात यह थी कि उन्हें किताबें छूने की भी मनाही थी। ऊंची जाति के शिक्षक और सहपाठी किताबें सीधे उनके हाथ में नहीं देते थे। इसके बजाय, किताब देने के लिए लकड़ी की छड़ी का इस्तेमाल होता था, ताकि उनका स्पर्श न हो। यह सब डॉ. भीमराव आंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) ने अपनी आत्मकथा “Waiting for a Visa” में लिखा। इन पंक्तियों को पढ़कर कोई भी उनके दर्द को महसूस कर सकता है।
लेकिन इस बच्चे ने हार नहीं मानी। वह हर अपमान को एक चुनौती की तरह लेता था। किताबें छूने की मनाही थी, तो उसने ठान लिया कि वह एक दिन इतनी किताबें इकट्ठा करेगा कि दुनिया देखेगी। और यही हुआ। सालों बाद, जब वह मुंबई में अपने घर ‘राजगृह’ में रहने लगे, तो उनके पास करीब 50,000 किताबों का खजाना था। यह कोई साधारण संग्रह नहीं था। ये किताबें अर्थशास्त्र, कानून, समाजशास्त्र, धर्म, राजनीति और साहित्य जैसे हर विषय पर थीं। उन्होंने इन्हें दुनिया के कोने-कोने से मंगवाया था। एक बार उन्होंने कहा था, “मेरी असली दौलत ये किताबें हैं।” यह संग्रह इतना विशाल था कि इसे एशिया की सबसे बड़ी निजी आंबेडकर लाइब्रेरी (Ambedkar Library) माना जाता है।
उनकी पढ़ाई का जुनून भी कमाल का था। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ते वक्त उन्होंने आठ साल का कोर्स सिर्फ दो साल में पूरा कर लिया। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी। उनके लिए किताबें सिर्फ कागज के पन्ने नहीं थीं, बल्कि वह हथियार थीं, जिनसे वह समाज की कुरीतियों और अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। हर किताब उनके लिए एक नई सीख थी, जो उन्हें अपने लक्ष्य के करीब ले जाती थी। चाहे वह कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई हो या लंदन में कानून की डिग्री, हर कदम पर उन्होंने अपनी मेहनत से इतिहास रचा।
उनके जीवन का एक और किस्सा हमें उनकी हिम्मत दिखाता है। एक बार वह किसी काम से शहर गए थे। रेलवे स्टेशन से उतरने के बाद उन्हें अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए तांगा चाहिए था। लेकिन जैसे ही तांगेवालों को पता चला कि वह उस समुदाय से हैं, जिसे ‘अछूत’ माना जाता था, सबने उन्हें ले जाने से इनकार कर दिया। आंबेडकर ने उनसे गुजारिश की, ज्यादा पैसे देने की पेशकश भी की, लेकिन जाति का भेदभाव उनके सामने दीवार बनकर खड़ा था। आखिर में, उन्होंने खुद तांगे की लगाम थामी और उसे हांकते हुए अपनी मंजिल तक पहुंच गए। यह छोटी सी घटना उनकी जिंदगी की उस सोच को दिखाती है, जो कहती थी—अगर रास्ता नहीं मिलता, तो रास्ता बना लो।
आंबेडकर लाइब्रेरी (Ambedkar Library) सिर्फ किताबों का ढेर नहीं थी। यह उस इंसान की मेहनत का प्रतीक थी, जिसने हर मुश्किल को पार कर अपने लिए और अपने समाज के लिए जगह बनाई। चाहे वह स्कूल में कीचड़ में बैठकर पढ़ना हो या दुनिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटियों में डिग्री लेना, आंबेडकर ने हर बार साबित किया कि ज्ञान और हौसला किसी भी बाधा से बड़ा होता है। उनकी यह कहानी आज भी हर उस इंसान को प्रेरित करती है, जो अपने सपनों को सच करने की जिद रखता है।
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