हम अक्सर अपनी कमियों को बहाना बना लेते हैं। “आंखें नहीं हैं, कैसे पढ़ूंगा?”, “पैर नहीं चलते, नौकरी कैसे करूंगा?”…पर श्रीकांत बोला को जीवन ने ऐसी चुनौती दी थी जिसके सामने ये सब शिकायतें छोटी लगतीं। जन्म से ही नेत्रहीन, वो उस दुनिया में उम्मीद ढूंढ रहे थे जो उन्हें अंधेरे में ही रखना चाहती थी। पर श्रीकांत हार मानने वालों में से नहीं थे…।
आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गांव में श्रीकांत का जन्म बेहद गरीब परिवार में हुआ। समाज के लिए वो एक बोझ थे, लोग तरस खाते या उनका मज़ाक बनाते। स्कूल जाना भी आसान नहीं था। पढ़ाई के लिए ब्रेल की किताबें कम मिलती थीं, साथी बच्चे मदद करने से ज्यादा चिढ़ाते थे। पर उनका मन पढ़ने में लगता था, कुछ कर दिखाने की ख्वाहिश थी।
दसवीं के बाद उन्होंने साइंस लेने की ज़िद की, तो पूरे सिस्टम से लड़ाई हुई। आईआईटी में जाने का सपना टूटा, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। अमेरिका पहुंचे, बड़ी यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया, और फिर वो दिन आया जब उन्होंने अपनी कंपनी, ‘बोलैंट इंडस्ट्रीज़’ शुरू की। यहां सिर्फ पैसा नहीं बनता, बल्कि पैकेजिंग में काम करने वाले ज़्यादातर दिव्यांग हैं। उनकी कंपनी ने साबित कर दिया कि विकलांगता व्यापार में बाधा नहीं बनती, बस सही ट्रेनिंग और मौका मिलना चाहिए। खुद श्रीकांत बोला ने दुनिया को दिखाया कि अगर इरादा हो तो आप वो सब हासिल कर सकते हैं जिसकी उम्मीद भी नहीं थी!
श्रीकांत बोला सिर्फ एक बिजनेसमैन नहीं हैं। वो उस सोच के खिलाफ लड़ रहे हैं जो विकलांग लोगों को तरस की नज़र से देखती है। वो कहते हैं, कोई पैदा होते वक्त परफेक्ट नहीं होता। हम खुद को बेहतर बनाते हैं मेहनत से। उनकी कंपनी के ज़रिए वो इसी मेहनत की ताकत दिखाते हैं और समाज को एक महत्वपूर्ण सबक सिखाते हैं।
पद्म श्री जैसे बड़े पुरस्कार, पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की प्रशंसा – ये सब तो श्रीकांत बोला की उपलब्धियों का छोटा सा हिस्सा हैं। शायद इससे भी बढ़कर ये है कि हज़ारों युवाओं के लिए वो किसी सुपरहीरो से कम नहीं। उनकी कहानी सुनकर आपका यकीन उन सभी सीमाओं पर से हट जाएगा जो आपने खुद अपने लिए बनाई हैं। और अब बड़े पर्दे पर आई फिल्म ‘श्रीकांत’ से उनकी प्रेरणादायक कहानी और भी लोगों तक पहुंचेगी।