Constitution’s Preamble Change: संविधान की प्रस्तावना में दो शब्दों को लेकर चल रही बहस अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई है। ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ (‘secular’ and ‘socialist’) शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिकाओं पर अदालत जल्द ही सुनवाई करेगी। यह मुद्दा काफी समय से चर्चा में है और अब इस पर कानूनी रूप से विचार किया जाएगा।
भारत के संविधान की प्रस्तावना में एक बड़े बदलाव की संभावना ने देश भर में चर्चा छेड़ दी है। संविधान की प्रस्तावना (Constitution’s Preamble) से दो महत्वपूर्ण शब्दों – ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ को हटाने की मांग अब सुप्रीम कोर्ट के सामने है। यह विषय न केवल कानूनी बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी बेहद संवेदनशील है।
सुप्रीम कोर्ट में क्या हो रहा है?
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने का फैसला किया है। अदालत ने कहा है कि वह नवंबर महीने में इस मामले पर विस्तृत सुनवाई करेगी। यह सुनवाई काफी महत्वपूर्ण होने वाली है क्योंकि इसमें भारत के संविधान के मूल स्वरूप पर चर्चा होगी।
याचिकाकर्ताओं का पक्ष
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ (‘secular’ and ‘socialist’) शब्द मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे। उनका दावा है कि ये शब्द 1976 में, आपातकाल के दौरान, 42वें संविधान संशोधन के जरिए जोड़े गए थे। उनका तर्क है कि उस समय विपक्षी नेता जेल में थे और बिना किसी उचित चर्चा के यह बदलाव किया गया था।
याचिकाकर्ताओं में से एक, बलराम सिंह के वकील विष्णु जैन ने कोर्ट में कहा कि संविधान सभा ने गहन विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया था कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द प्रस्तावना में नहीं होगा। उनका मानना है कि इस तरह के महत्वपूर्ण बदलाव को बिना व्यापक चर्चा के नहीं किया जाना चाहिए था।
सुप्रीम कोर्ट का प्रारंभिक रुख
सुप्रीम कोर्ट ने शुरुआत में इस याचिका पर सवाल उठाए। जस्टिस संजीव खन्ना ने पूछा कि क्या याचिकाकर्ता नहीं चाहते कि भारत धर्मनिरपेक्ष रहे। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा फ्रांस जैसे देशों से अलग है। भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सभी धर्मों का सम्मान करना है, न कि धर्म को पूरी तरह से अलग रखना।
समाजवाद पर विचार
‘समाजवाद’ शब्द को लेकर भी गंभीर चर्चा हुई। कुछ वकीलों ने तर्क दिया कि समाजवाद एक राजनीतिक विचारधारा है और हर व्यक्ति को इसकी शपथ लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। हालांकि, जस्टिस खन्ना ने इस पर एक अलग दृष्टिकोण रखा। उन्होंने कहा कि ‘समाजवाद’ को एक ऐसे सिद्धांत के रूप में देखा जा सकता है जो समाज के हर वर्ग को समान अधिकार देने की बात करता है।
आगे की राह
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे की जटिलता को समझते हुए इस पर विस्तृत सुनवाई करने का फैसला किया है। अदालत ने कहा है कि वह 18 नवंबर से शुरू होने वाले सप्ताह में इस मामले पर गहराई से विचार करेगी। यह सुनवाई न केवल कानूनी दृष्टि से बल्कि भारत के सामाजिक और राजनीतिक भविष्य के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण होगी।
इस पूरी बहस में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के संविधान की मूल भावना क्या है और उसे कैसे बरकरार रखा जाए। चाहे कोई शब्द रहे या न रहे, भारत की विविधता और समावेशी प्रकृति को बनाए रखना हर नागरिक की जिम्मेदारी है। यह मामला सिर्फ दो शब्दों का नहीं, बल्कि एक विशाल लोकतंत्र की आत्मा का है।
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