Narayan Rane: 10 अप्रैल का दिन महाराष्ट्र की सियासत में एक खास नाम के साथ जुड़ा है। यह नाम है नारायण राणे का, जिनका जन्म 1952 में इसी दिन हुआ था। एक साधारण परिवार से निकलकर वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री तक बने। उनका जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा। कभी बालासाहेब ठाकरे के करीबी रहे, तो कभी उद्धव ठाकरे से मनमुटाव के चलते शिवसेना छोड़ दी। कांग्रेस में भी उन्हें धोखा मिला, और आखिर में बीजेपी का दामन थामा। आज नई पीढ़ी के लिए उनकी कहानी प्रेरणा और सियासी ड्रामे का मिश्रण है। आइए, उनके इस रोचक सफर को करीब से जानते हैं।
नारायण राणे का जन्म मुंबई के पास एक छोटे से गांव में हुआ था। शुरुआती दिन आसान नहीं थे। युवावस्था में वे चेंबूर में “हरया-नारया” नाम के एक स्थानीय गिरोह से जुड़े। यह 1960 का दशक था, जब मुंबई के उपनगरों में ऐसी गतिविधियां आम थीं। लेकिन जल्द ही उनकी जिंदगी ने नया मोड़ लिया। बीस साल की उम्र में वे शिवसेना से जुड़े। बालासाहेब ठाकरे ने उनकी मेहनत और हिम्मत को देखा। यहीं से “नारायण राणे का सियासी सफर” (Narayan Rane Ka Siyasi Safar) शुरू हुआ। पहले वे चेंबूर में शाखा प्रमुख बने, फिर पार्षद और धीरे-धीरे ऊंचाइयों को छूते गए।
शिवसेना में नारायण राणे का कद तेजी से बढ़ा। 1995 में जब शिवसेना-बीजेपी की सरकार बनी, तो वे बड़े नेताओं में शुमार हो गए। बालासाहेब ने उन्हें कई अहम जिम्मेदारियां दीं। वे बॉम्बे इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट (BEST) के अध्यक्ष बने। उस समय इसका बजट 1500 करोड़ से ज्यादा था। राणे ने पार्टी के लिए धन जुटाने और संगठन को मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 1999 में जब मनोहर जोशी को हटाया गया, तो बालासाहेब ने राणे पर भरोसा जताया। वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने। लेकिन यह कुर्सी उन्हें सिर्फ 8 महीने ही नसीब हुई। चुनाव में गठबंधन हारा और उनकी कुर्सी चली गई।
शिवसेना में सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन उद्धव ठाकरे के आगे बढ़ने से राणे को लगा कि उन्हें किनारे किया जा रहा है। दोनों के बीच दूरियां बढ़ने लगीं। 2005 में राणे का धैर्य टूट गया। उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। यह उनके लिए बड़ा झटका था। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस का रास्ता चुना। कांग्रेस ने उन्हें गर्मजोशी से अपनाया और राजस्व मंत्री बनाया। लेकिन यहां भी उनकी राह आसान नहीं थी। 26/11 हमलों के बाद विलासराव देशमुख हटे, और अशोक चव्हाण को सीएम बनाया गया। राणे को लगा कि उन्हें वादे के मुताबिक सीएम की कुर्सी नहीं दी गई। नाराज होकर उन्होंने सोनिया गांधी के खिलाफ बयान दिए। नतीजा? पार्टी ने उन्हें निलंबित कर दिया। बाद में माफी मांगने पर निलंबन हटा, लेकिन राणे का भरोसा टूट चुका था।
कांग्रेस में भी राणे को बार-बार निराशा हाथ लगी। 2014 में वे कोंकण से चुनाव हारे। फिर 2015 में बांद्रा ईस्ट उपचुनाव में शिवसेना की तृप्ति सावंत से हार गए। यह हार उनके लिए करारा झटका थी। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। 2017 में उन्होंने अपनी पार्टी बनाई, नाम रखा “महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष”। लेकिन यह ज्यादा दिन नहीं चली। 2019 में वे बीजेपी में शामिल हो गए। बीजेपी ने उन्हें राज्यसभा भेजा और 2021 में मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री बनाया। आज वे रत्नागिरी-सिंधुदुर्ग से सांसद हैं। “शिवसेना से बीजेपी तक” (Shiv Sena Se BJP Tak) उनका यह सफर युवाओं को सिखाता है कि हार के बाद भी हिम्मत से आगे बढ़ा जा सकता है।
राणे का विवादों से भी गहरा नाता रहा। 2002 में कांग्रेस विधायक पद्माकर वलवी ने उन पर अपहरण का आरोप लगाया। यह मामला विश्वास मत से पहले का था। पुलिस ने जांच की, लेकिन राणे को जमानत मिल गई। फिर बीजेपी में आने से पहले किरीट सोमैया ने उन पर मनी लॉन्ड्रिंग का इल्जाम लगाया। कहा गया कि राणे ने मुंबई के एक लग्जरी प्रोजेक्ट में टैक्स हेवन से पैसा लगाया। हालांकि, ये आरोप साबित नहीं हुए। 2021 में उद्धव ठाकरे पर टिप्पणी के बाद उन्हें गिरफ्तार भी किया गया, पर कोर्ट ने जमानत दे दी। ये घटनाएं उनकी जिंदगी का हिस्सा बन गईं।
नारायण राणे की जिंदगी एक फिल्म की तरह है। सड़क से सत्ता तक पहुंचे, फिर नीचे आए और दोबारा ऊंचाइयों को छुआ। बालासाहेब के भरोसे से शुरू हुआ उनका सफर आज बीजेपी की बड़ी जिम्मेदारियों तक पहुंचा है। युवा पीढ़ी के लिए उनकी कहानी मेहनत, हिम्मत और सियासी चालबाजी का सबक है। हर कदम पर चुनौतियां आईं, लेकिन वे रुके नहीं। आज उनका जन्मदिन हमें उनकी इस यात्रा को याद करने का मौका देता है।
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