महाराष्ट्र की सियासत में एक नया मोड़ आ गया है, जहां राज ठाकरे का पतन (Raj Thackeray’s Downfall) सबकी नज़रों में है। एक वक्त था जब वो महाराष्ट्र की राजनीति में किंगमेकर बनने का सपना देखते थे, लेकिन आज उनकी पार्टी के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग गए हैं।
किंगमेकर से पार्टी बचाने तक का सफर
जब राज ठाकरे का पतन (Raj Thackeray’s Downfall) शुरू हुआ, तब किसी को नहीं पता था कि यह इतना गहरा होगा। चुनाव से पहले राज ठाकरे बड़े-बड़े दावे कर रहे थे। वो कह रहे थे कि भाजपा सरकार बनाएगी और वो उसमें अहम भूमिका निभाएंगे। लेकिन चुनाव नतीजों ने उनके सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया। एक भी सीट न जीत पाना उनकी राजनीतिक यात्रा का सबसे कड़वा सच बन गया है।
वोट बैंक का बिखराव और पार्टी का संकट
मनसे का राजनीतिक संकट गहराया (MNS’s Political Crisis Deepens) जब पार्टी को महज 1.55 फीसदी वोट मिले। यह आंकड़ा बताता है कि मराठी मुद्दों पर राजनीति करने वाली पार्टी अब मराठी जनता से भी दूर हो गई है। 2009 में 13 सीटें जीतने वाली पार्टी का यह हाल देख कर राजनीतिक पंडित भी हैरान हैं। राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे की पहली ही चुनावी परीक्षा में मिली हार ने साबित कर दिया कि पार्टी में नई पीढ़ी भी वोटरों को आकर्षित करने में नाकाम रही है।
चुनाव चिह्न और मान्यता का संकट
अब मनसे के सामने सबसे बड़ा संकट उनके चुनाव चिह्न ‘रेल इंजन’ को लेकर है। चुनाव आयोग के नियमों के मुताबिक, किसी पार्टी को क्षेत्रीय दल की मान्यता पाने के लिए या तो 8 फीसदी वोट के साथ एक सीट, या 6 फीसदी वोट के साथ दो सीटें, या फिर 3 फीसदी वोट के साथ तीन सीटें जीतनी होती हैं। लेकिन मनसे इनमें से कोई भी शर्त पूरी नहीं कर पाई है। इसका मतलब है कि अब उन्हें निर्दलीय उम्मीदवारों की तरह नए चुनाव चिह्न के साथ चुनाव लड़ना पड़ सकता है।
बाल ठाकरे की विरासत से भटके राज
शिवसेना से अलग होकर अपनी राह चुनने वाले राज ठाकरे अपने चाचा बाल ठाकरे की विरासत को आगे नहीं बढ़ा पाए। उनकी पार्टी की यह हालत कई सवाल खड़े करती है। क्या मराठी मुद्दों पर राजनीति का वक्त अब बीत चुका है? क्या नई पीढ़ी के मतदाताओं को क्षेत्रीय मुद्दे उतने महत्वपूर्ण नहीं लगते? इन सवालों के जवाब ढूंढने में राज ठाकरे को अब काफी मशक्कत करनी पड़ेगी।