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केंद्र सरकार ने जाति जनगणना को दी मंजूरी, जानें इससे क्या-क्या बदल जाएगा?

जाति जनगणना
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भारत में लंबे समय से चली आ रही जाति जनगणना की मांग को आखिरकार हरी झंडी मिल गई है। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने हाल ही में घोषणा की कि मोदी सरकार अगली जनगणना के साथ जातिगत जनगणना भी कराएगी। ये फैसला न केवल सामाजिक और आर्थिक आंकड़ों को सामने लाएगा, बल्कि देश की सियासत और आरक्षण नीतियों पर भी गहरा प्रभाव डालेगा। आइए, इस ब्लॉग में जानते हैं कि जातिगत जनगणना क्या है, इसका महत्व, और ये भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को कैसे बदल सकता है।

जातिगत जनगणना का इतिहास और महत्व
भारत में आजादी से पहले 1931 तक जातिगत जनगणना होती थी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद सामाजिक एकता को बनाए रखने के लिए इस नीति को बदल दिया गया। 1951 से 2011 तक भारत में सात बार जनगणना हुई, जिसमें अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति (SC), और अनुसूचित जनजाति (ST) की गणना की गई, लेकिन अन्य जातियों की गिनती नहीं हुई। अब 94 साल बाद, मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना का फैसला लिया है।

जातिगत जनगणना के जरिए न केवल जातियों की संख्या का पता चलेगा, बल्कि उनकी सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षणिक स्थिति का भी आकलन होगा। ये डेटा सरकार को सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने और पिछड़े वर्गों के लिए बेहतर नीतियां बनाने में मदद करेगा।

ओबीसी आबादी का सटीक आंकड़ा
वर्तमान में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की आबादी का कोई प्रमाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। 1931 की जनगणना के अनुसार, ओबीसी की आबादी 52% से अधिक थी, और मंडल आयोग ने भी इसे आधार माना था। हाल के कुछ राज्य-स्तरीय सर्वेक्षणों, जैसे बिहार में 63.13% और तेलंगाना में 65% ओबीसी आबादी सामने आई है। जातिगत जनगणना के बाद पूरे देश में ओबीसी की सटीक आबादी का पता चल सकेगा, जो आरक्षण और नीति निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

आरक्षण की 50% सीमा पर प्रभाव
जातिगत जनगणना का सबसे बड़ा प्रभाव आरक्षण की 50% सीमा पर पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर 50% की सीमा तय की है, जिसके कारण इससे अधिक आरक्षण देना संभव नहीं है। मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी को 27% आरक्षण दिया गया था, लेकिन तब कोई सटीक आंकड़ा नहीं था। अब जातिगत जनगणना के बाद ओबीसी अपनी आबादी के अनुपात में अधिक आरक्षण की मांग कर सकते हैं।

बिहार, तेलंगाना, और कर्नाटक जैसे राज्यों में जातिगत सर्वे के बाद आरक्षण की सीमा बढ़ाने के फैसले लिए गए हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी 50% की सीमा हटाने की मांग कर रहे हैं। अगर ये सीमा हटती है, तो स्कूल-कॉलेजों और सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों की भागीदारी बढ़ सकती है।

सियासत में बड़ा बदलाव
जातिगत जनगणना का असर राजनीति पर भी गहरा होगा। मंडल आयोग लागू होने के बाद सपा, राजद, जदयू, और बसपा जैसी ओबीसी-आधारित पार्टियों का उदय हुआ था। जनगणना के आंकड़ों से पता चलेगा कि किस राज्य और क्षेत्र में किस जाति की आबादी कितनी है। इससे राजनीतिक दल उन जातियों को अधिक प्रतिनिधित्व दे सकते हैं, जिनकी आबादी ज्यादा होगी।

साथ ही, उच्च जातियों की आबादी के दावों से कम होने की संभावना है, जैसा कि बिहार और तेलंगाना के सर्वे में देखा गया। इससे संसद और विधानसभाओं में सवर्ण प्रतिनिधित्व घट सकता है, जबकि दलित और ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा।

स्कूल-कॉलेज और नौकरियों पर असर
जातिगत जनगणना के बाद आरक्षण की सीमा बढ़ाने का दबाव बढ़ेगा। राहुल गांधी ने निजी संस्थानों में भी आरक्षण लागू करने की मांग की है। अगर ऐसा होता है, तो स्कूल-कॉलेजों में पिछड़े वर्गों के छात्रों की संख्या बढ़ सकती है। सरकारी नौकरियों में भी उन जातियों की भागीदारी बढ़ेगी, जिनका वर्तमान में प्रतिनिधित्व कम है।

विधानसभा और लोकसभा सीटों पर प्रभाव
जातिगत जनगणना से ये स्पष्ट होगा कि किस विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में किस जाति की कितनी आबादी है। इससे सियासी दल उन जातियों पर ज्यादा ध्यान देंगे, जिनकी आबादी अधिक होगी। दलित और आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित सीटें भी बढ़ सकती हैं। वहीं, जिन क्षेत्रों में सवर्ण आबादी कम होगी, वहां उनकी सीटें प्रभावित हो सकती हैं।

महिला आरक्षण पर प्रभाव
मोदी सरकार ने 33% महिला आरक्षण का कानून पास किया है। जातिगत जनगणना के बाद ओबीसी, एससी, और एसटी महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की मांग जोर पकड़ सकती है। विपक्षी दल पहले से ही इसकी वकालत कर रहे हैं।

सामाजिक ताने-बाने पर असर
जातिगत जनगणना के कई फायदों के साथ कुछ जोखिम भी हैं। ये सामाजिक विभाजन को और गहरा कर सकता है। 1990 में मंडल आयोग लागू होने के दौरान देश में बड़े पैमाने पर विरोध और हिंसा हुई थी। ऐसे में सरकार को ये सुनिश्चित करना होगा कि जातिगत जनगणना सामाजिक एकता को नुकसान न पहुंचाए।

वित्त आयोग और नीति निर्माण
जातिगत जनगणना का डेटा वित्त आयोग को राज्यों को अनुदान देने में मदद करेगा। इससे सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बेहतर योजनाएं बनाई जा सकेंगी। साथ ही, ये सामाजिक न्याय को बढ़ावा देगा, क्योंकि सरकार को उन जातियों की स्थिति का सटीक आकलन हो सकेगा, जो वर्तमान में सुविधाओं से वंचित हैं।

जातिगत जनगणना भारत के सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने की क्षमता रखती है। ये न केवल आरक्षण और नीति निर्माण में पारदर्शिता लाएगी, बल्कि सामाजिक न्याय को भी बढ़ावा देगी। हालांकि, इसके साथ सामाजिक एकता को बनाए रखने की चुनौती भी होगी। इस जनगणना के आंकड़े न केवल सरकार, बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए महत्वपूर्ण होंगे।

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