New Power Equation in Maharashtra: चुनाव चिन्हों की अनोखी कहानी जैसा कि हम सब जानते हैं, चुनावी प्रतीक युद्ध (Electoral Symbol Battle) ने महाराष्ट्र की राजनीति में तहलका मचा दिया। धनुष-बाण हो या घड़ी, मशाल हो या तुरही, हर चिन्ह ने अपनी अलग कहानी लिखी। आप सोच रहे होंगे कि भला एक चुनाव चिन्ह इतना महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है? चलिए, मैं आपको बताता हूं।
शिवसेना का महासंग्राम अरे वाह, शिवसेना की कहानी तो और भी दिलचस्प है। एक तरफ एकनाथ शिंदे के पास था धनुष-बाण का चिन्ह, तो दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे के पास मशाल। गली-मोहल्लों में लोग कहते थे, “अरे भाई, धनुष-बाण तो बाला साहेब की निशानी है।” इस भावनात्मक जुड़ाव ने कार्यकर्ताओं से लेकर आम जनता तक, सबके दिलों को छू लिया।
एनसीपी का रोचक ड्रामा अब आइए एनसीपी की बात करें। यहां महाराष्ट्र में सत्ता का नया समीकरण (New Power Equation in Maharashtra) कुछ और ही रंग दिखा रहा था। अजित पवार के पास घड़ी का चिन्ह था, तो शरद पवार के गुट के पास तुरही बजाता आदमी। लोग कहते थे, “समय की घड़ी ने पलट दी बाजी।” बारामती में तो कमाल ही हो गया, जहां चाचा-भतीजे की लड़ाई में घड़ी ने अपनी टिक-टिक से सबको चौंका दिया।
गली-मोहल्लों की राजनीति जमीन पर उतरकर देखें तो पता चलता है कि चुनाव चिन्हों ने कैसे लोगों की सोच बदली। एक दुकानदार ने कहा, “साहब, हमारे लिए तो चिन्ह ही पहचान है। हम तो बचपन से इसी को देखते आ रहे हैं।” कार्यकर्ताओं का कहना था, “जब हम घर-घर जाते हैं, तो लोग चिन्ह देखकर ही पहचानते हैं।”
जनता की अदालत मजेदार बात यह है कि जनता ने अपना फैसला चिन्हों के आधार पर ही सुनाया। एक बुजुर्ग मतदाता ने कहा, “बेटा, हमारे लिए तो चिन्ह ही सब कुछ है। नाम-धाम तो बदल सकते हैं, पर चिन्ह वही पुराना चाहिए।” यह बात साबित करती है कि राजनीति में कभी-कभी प्रतीक, नाम से ज्यादा मायने रखते हैं।
नई राजनीति का उदय आज महाराष्ट्र की राजनीति में एक नया सवेरा हो रहा है। चुनाव चिन्हों ने साबित कर दिया कि राजनीति में कोई भी चीज छोटी या बड़ी नहीं होती। एक स्थानीय नेता ने कहा, “देखिए साहब, अब वो पुरानी राजनीति नहीं रही। अब तो जो दिखता है, वही बिकता है।” और यह बात बिल्कुल सही साबित हुई।
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