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Voting Ink: वोटिंग वाली स्याही की पूरी कहानी – कैसे बनी, क्यों नहीं मिटती, और कहां बनती है!

Voting Ink
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Voting Ink: चुनाव का मतलब ही होता है उंगली पर वो बैंगनी निशान! लेकिन ‘अमिट स्याही’ को सिर्फ धो-पोंछ कर मिटाया नहीं जा सकता। आखिर क्यों? इसमें ऐसा क्या खास है और इसकी शुरुआत कैसे हुई? चलिए, पूरी कहानी जानते हैं…

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, लेकिन पहले इसके चुनावों में बहुत गड़बड़ होती थी। एक ही आदमी अलग-अलग नामों से वोटर लिस्ट में दर्ज होता, या फिर कई-कई बूथों पर जाकर वोट डाल देता था! कई बार तो लोगों के हाथ धोकर उन्हें फिर से वोटिंग लाइन में भेज दिया जाता था।

देश के वैज्ञानिकों ने इस समस्या का हल निकालने का बीड़ा उठाया। नेशनल फिजिकल लैबोरेटरी (NPL) में वैज्ञानिक दिन-रात मेहनत करके ऐसा फार्मूला बनाने में जुट गए, जिसका निशान कुछ दिनों तक मिटे ही नहीं। कई प्रयोगों के बाद, उन्हें वो जादुई चीज़ मिल गई – सिल्वर नाइट्रेट!

आपने वो पुरानी ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें देखी हैं? वो भी सिल्वर नाइट्रेट की वजह से ही बनती थीं! ये केमिकल धूप या तेज़ रोशनी के संपर्क में आने से काला पड़ जाता है। इसीलिए अमिट स्याही आपकी त्वचा पर तब तक चिपकी रहती है,जब तक त्वचा की वो ऊपरी परत खुद-ब-खुद नहीं बदल जाती। ये स्याही कम से कम 7-10 दिन तक तो रहती ही है, और कई बार इससे भी ज्यादा समय तक फीकी नहीं पड़ती। चुनाव के नतीजे आने तक फर्जी वोटिंग की चिंता ही खत्म, है ना?

पूरे भारत में सिर्फ एक कंपनी इस खास स्याही को बनाने का हक रखती है – कर्नाटक में स्थित मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड (MPVL)। ये कंपनी पहले सरकारी थी, और इस स्याही का फॉर्मूला उसी वक्त से इस्तेमाल किया जा रहा है।

भारत की ये अनोखी स्याही सिर्फ देश में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में मशहूर है। नेपाल, तुर्की, मलेशिया, अफगानिस्तान जैसे कई देशों के चुनावों में आपूर्ति की जाती है। ये स्याही उन देशों के लिए वरदान है, जहां चुनावों में धांधली आम बात रहती थी।

क्या आपको पता है कि अमिट स्याही सिर्फ चुनावों के लिए ही नहीं बनती? कई बार अस्पतालों में मरीज़ों की पहचान के लिए भी इसका इस्तेमाल होता है।

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