Caste Certificate Plea Rejected: मुंबई, एक ऐसा शहर जो अपने कानूनी और सामाजिक बदलावों के लिए जाना जाता है, अब एक बार फिर चर्चा में है। बॉम्बे हाई कोर्ट ने हाल ही में 18 वर्षीय छात्र सुजल बिरवडकर की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) ‘चंभार’ समुदाय का दर्जा मांगा था। इस मामले ने न केवल कानूनी दृष्टिकोण से, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं से भी ध्यान खींचा है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सुजल ने अपने जीवन में ऐसी सामाजिक भेदभाव या वंचितता (social discrimination) का सामना नहीं किया, जो इस तरह के दावे को सही ठहराए। यह फैसला उन नियमों को रेखांकित करता है, जो मिश्रित जाति वाले परिवारों के बच्चों के लिए लागू होते हैं।
सुजल बिरवडकर ने अपनी मां के आधार पर चंभार अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) का प्रमाणपत्र मांगा था। उनकी मां केंद्रीय पुलिस बल में कर्मचारी हैं और 2016 में सुजल के पिता से तलाक के बाद उनकी एकमात्र संरक्षक हैं। सुजल के पिता ‘हिंदू अग्रि’ समुदाय से हैं, जो अनुसूचित जाति में नहीं आता। तलाक के बाद सुजल ने अपना नाम सुजल मोकाल से बदलकर सुजल बिरवडकर कर लिया। 2023 में उन्होंने रायगढ़ जिले के सक्षम प्राधिकारी से जाति प्रमाणपत्र प्राप्त किया, लेकिन 15 अप्रैल 2024 को रायगढ़ जिला जाति प्रमाणपत्र जांच समिति ने इसे खारिज कर दिया। समिति ने अपनी जांच में पाया कि सुजल ने अनुसूचित जाति के समुदाय में पलने या उससे जुड़े नुकसानों का सामना करने का कोई सबूत नहीं दिया।
सुजल की ओर से पेश वकील निखिल अडकिन ने कोर्ट में तर्क दिया कि सुजल का पालन-पोषण पूरी तरह उनकी मां ने किया, जो चंभार समुदाय से हैं। उन्होंने कहा कि सुजल को अपने पिता से कोई सहारा नहीं मिला और उन्हें सामाजिक नुकसान का सामना करना पड़ा। वकील ने यह भी दलील दी कि सुजल को अनुसूचित जाति का दर्जा मिलना चाहिए, क्योंकि वह अपनी मां की पहचान के साथ बड़े हुए। लेकिन सरकार की ओर से पेश वकील बी.वी. समंत ने इसका विरोध किया। उन्होंने जांच समिति की सतर्कता रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि सुजल को न तो कोई कठिनाई झेलनी पड़ी, न ही सामाजिक भेदभाव (social discrimination) का सामना करना पड़ा।
सतर्कता रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि सुजल की मां के पास एक स्थिर सरकारी नौकरी है। उन्होंने तलाक के बाद अपने पूर्व पति से कोई भरण-पोषण नहीं मांगा और अपने बेटे को अच्छी शिक्षा दी। सुजल ने केंद्रीय विद्यालय जैसे प्रतिष्ठित स्कूलों में पढ़ाई की, जो सामान्यतः अच्छे आर्थिक और सामाजिक स्तर वाले परिवारों के बच्चों के लिए सुलभ होते हैं। एक स्थानीय निवासी, जो सुजल के पड़ोस में रहता है, ने बताया कि सुजल का परिवार सामान्य जीवन जीता है और उन्हें कभी किसी सामाजिक बहिष्कार या अपमान का सामना करते नहीं देखा गया। इस तरह की जानकारी ने जांच समिति के फैसले को और मजबूत किया।
बॉम्बे हाई कोर्ट की जज रेवती मोहिते डेरे और नीला गोखले की खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई की। कोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के एक पुराने आदेश का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि मिश्रित जाति वाले माता-पिता के बच्चे को अनुसूचित जाति का दर्जा तभी मिल सकता है, जब वह साबित करे कि उसका पालन-पोषण अनुसूचित जाति के माहौल में हुआ और उसे उस समुदाय से जुड़ी सामाजिक वंचितता और भेदभाव का सामना करना पड़ा। कोर्ट ने कहा कि केवल अनुसूचित जाति की मां के बच्चे होने का दावा पर्याप्त नहीं है। सुजल के मामले में कोई ऐसा रिकॉर्ड नहीं था, जो यह दिखाए कि उन्हें कोई सामाजिक अपमान या वंचितता झेलनी पड़ी।
इस मामले ने मिश्रित जाति वाले परिवारों के लिए जाति प्रमाणपत्र के नियमों को फिर से चर्चा में ला दिया। भारत में जाति प्रमाणपत्र न केवल सामाजिक पहचान का हिस्सा हैं, बल्कि शिक्षा, नौकरी, और सरकारी योजनाओं में आरक्षण के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। चंभार समुदाय, जो महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आता है, पारंपरिक रूप से चमड़ा उद्योग से जुड़ा रहा है। लेकिन आज इस समुदाय के कई लोग विभिन्न पेशों में हैं, जैसे कि सुजल की मां, जो एक सरकारी कर्मचारी हैं। फिर भी, जाति प्रमाणपत्र के लिए यह जरूरी है कि दावेदार उस समुदाय की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों से जुड़ा हो।
सुजल का मामला उन हजारों युवाओं की कहानी को सामने लाता है, जो अपनी पहचान को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ते हैं। रायगढ़ जिले में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहां मिश्रित जाति वाले बच्चे अपनी मां या पिता की जाति के आधार पर प्रमाणपत्र मांगते हैं। लेकिन जांच समितियां इन मामलों में सख्ती बरतती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता, अनिता पाटिल, ने बताया कि कई बार बच्चे अपनी मां की पहचान को अपनाते हैं, खासकर तब जब पिता परिवार छोड़ देता है। लेकिन कानूनन यह साबित करना पड़ता है कि बच्चे ने उस समुदाय की सामाजिक परिस्थितियों में जीवन जिया।
कोर्ट के फैसले ने यह भी स्पष्ट किया कि जाति प्रमाणपत्र का दावा भावनात्मक या पारिवारिक आधार पर नहीं, बल्कि ठोस सबूतों पर टिका होना चाहिए। सुजल की मां ने अपने बेटे को अच्छी शिक्षा और स्थिर जीवन दिया, जो उनके लिए गर्व की बात है। लेकिन कोर्ट के मुताबिक, यह स्थिरता ही उनके दावे के खिलाफ गई, क्योंकि इससे यह साबित नहीं हुआ कि सुजल को अनुसूचित जाति के समुदाय की सामाजिक वंचितता का सामना करना पड़ा।
यह मामला उन नीतियों को भी सामने लाता है, जो मिश्रित जाति वाले परिवारों के लिए बनाई गई हैं। भारत में अंतरजातीय विवाह बढ़ रहे हैं, जिसके कारण ऐसे मामले और भी जटिल हो रहे हैं। 2023 में महाराष्ट्र में 1,200 से अधिक लोगों ने मिश्रित जाति के आधार पर जाति प्रमाणपत्र के लिए आवेदन किया, लेकिन उनमें से केवल 15% को ही प्रमाणपत्र मिला। यह आंकड़ा दिखाता है कि जांच समितियां कितनी सख्ती से काम करती हैं। सुजल जैसे युवाओं के लिए यह एक लंबी प्रक्रिया हो सकती है, जो उनकी शिक्षा और करियर की योजनाओं को प्रभावित करती है।
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