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Google and Meta vs Media Institutions: खबर हमारी और डॉलर वे कूट रहे, समझें भारत की मीडिया कंपनियां गूगल-फेसबुक से क्यों बोल रहीं- साड्डा हक इत्थे रख

Google and Meta vs Media Institutions: खबर हमारी और डॉलर वे कूट रहे, समझें भारत की मीडिया कंपनियां गूगल-फेसबुक से क्यों बोल रहीं- साड्डा हक इत्थे रख

Google and Meta vs Media Institutions: आज के डिजिटल युग में, जहां हर खबर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर पहुंच रही है, भारतीय मीडिया संस्थानों और टेक दिग्गजों जैसे गूगल और मेटा (Google and Meta) के बीच रेवेन्यू शेयरिंग को लेकर बड़ी बहस छिड़ी हुई है। इन कंपनियों की भारी कमाई और मीडिया हाउस की सीमित हिस्सेदारी ने एक नई बहस को जन्म दिया है। सवाल उठता है कि क्या भारत में भी ऑस्ट्रेलिया जैसा कानून बनाकर मीडिया संस्थानों को उनका हक दिलाया जा सकता है?


मीडिया संस्थानों और टेक दिग्गजों के बीच संघर्ष

गूगल और मेटा जैसी कंपनियां अपनी डिजिटल एड (advertisement) पॉलिसी से अरबों रुपए कमा रही हैं। लेकिन, यह पैसा मुख्य रूप से उन खबरों के माध्यम से आता है जो मीडिया संस्थान अपने संसाधनों और श्रम से तैयार करते हैं। डिजिटल न्यूज़ पब्लिशर्स एसोसिएशन (DNPA) ने सरकार और अदालतों में शिकायत दर्ज कराई है कि यह असमानता बंद होनी चाहिए।

मार्च 2021 में, ऑस्ट्रेलिया ने न्यूज मीडिया बार्गेनिंग कोड (News Media Bargaining Code) लागू किया था। इस कानून के तहत, गूगल और फेसबुक को लोकल न्यूज पब्लिशर्स के साथ रेवेन्यू शेयर करना अनिवार्य कर दिया गया। ऑस्ट्रेलिया के इस कदम से प्रेरणा लेते हुए, भारत भी एक समान कानून की दिशा में सोच रहा है।

गूगल और मेटा बनाम मीडिया संस्थान (Google and Meta vs Media Institutions) की लड़ाई, खासकर डिजिटल रेवेन्यू को लेकर, भारत के सूचना प्रसारण मंत्री द्वारा भी उठाई जा चुकी है। उन्होंने इस मुद्दे पर पारदर्शी समाधान की आवश्यकता पर जोर दिया है।


डिजिटल पब्लिशर्स की प्रमुख मांगें

भारतीय मीडिया हाउस, जिनके पास खबरें तैयार करने का मुख्य अधिकार है, तीन मुख्य मांग कर रहे हैं:

उचित मुआवज़ा (Fair Compensation): टेक दिग्गजों से कंटेंट के बदले सही कीमत मिलनी चाहिए।

विज्ञापन राजस्व का विभाजन (Ad Revenue Division): गूगल और मेटा जैसी कंपनियों द्वारा कमाए गए विज्ञापन राजस्व का एक हिस्सा पब्लिशर्स के पास आना चाहिए।

सख्त नियामक ढांचा (Regulatory Framework): मीडिया संस्थानों और टेक कंपनियों के बीच संबंधों को स्पष्ट करने के लिए नियम बनाए जाएं।


गूगल और मेटा की भारत में कमाई

गूगल इंडिया ने 2023-24 में ₹1,424.9 करोड़ का मुनाफा दर्ज किया। वहीं, मेटा ने ₹18,308 करोड़ का सकल विज्ञापन राजस्व अर्जित किया। मेटा का शुद्ध लाभ 19% बढ़कर ₹352 करोड़ हो गया। लेकिन इन आंकड़ों का एक बड़ा हिस्सा उन खबरों पर आधारित है जो भारतीय मीडिया तैयार करती है।

सीसीआई की रिपोर्ट क्या कहती है?

भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (CCI) ने दो साल तक गूगल के खिलाफ शिकायतों की जांच की। उनकी रिपोर्ट से पता चलता है कि गूगल अपने सर्च इंजन के जरिए मीडिया संस्थानों के ट्रैफिक को नियंत्रित करता है, लेकिन पब्लिशर्स को उचित राजस्व नहीं देता।

समाचार पब्लिशर्स ने शिकायत की है कि गूगल द्वारा प्रस्तुत समाचार सारांश से लोग उनकी वेबसाइट पर नहीं जाते, जिससे ट्रैफिक और विज्ञापन राजस्व में कमी होती है। यह असंतुलन पब्लिशर्स के हितों को नुकसान पहुंचाता है।


क्या भारत में बनेगा नया कानून?

सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इस समस्या का समाधान खोजने के लिए अलग कानून पर विचार शुरू किया है। यह कानून मीडिया पब्लिशर्स को गूगल और मेटा जैसी कंपनियों के साथ निष्पक्ष समझौते में मदद करेगा। हालांकि, इसे प्रतिस्पर्धा कानून के तहत लाने की बजाय, इसे एक स्टैंडअलोन (standalone) कानून के रूप में देखा जा रहा है।


मीडिया बनाम टेक: आखिर किसका हक?

डिजिटल युग में, खबरें तैयार करने वाले मीडिया हाउस और उन्हें दिखाने वाले टेक प्लेटफॉर्म्स के बीच संतुलन बनाना जरूरी हो गया है। गूगल और मेटा बनाम मीडिया संस्थान (Google and Meta vs Media Institutions) की इस लड़ाई में, सरकार की पहल महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।


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