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Politics in Saffron Attire: भगवा वस्त्र पर सियासी संग्राम; खरगे के बयान से मचा बवाल, धर्मगुरुओं ने दिया करारा जवाब

Politics in Saffron Attire: भगवा वस्त्र पर सियासी संग्राम; खरगे के बयान से मचा बवाल, धर्मगुरुओं ने दिया करारा जवाब

Politics in Saffron Attire: महाराष्ट्र के चुनावी माहौल में एक रोचक मोड़ आ गया है, जहां धर्म और राजनीति के बीच की दूरी को लेकर गरमागरम बहस छिड़ गई है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के एक बयान ने पूरे देश में हलचल मचा दी है, जिसमें उन्होंने भगवाधारी नेताओं की राजनीतिक भूमिका पर सवाल उठाए हैं।

विवाद की जड़ें भगवा पहनकर राजनीति का मुद्दा तब सुर्खियों में आया जब खरगे ने मुंबई में ‘संविधान बचाओ सम्मेलन’ में एक बेबाक टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि जो लोग संन्यासी के वेश में हैं, उन्हें या तो अपना भगवा वस्त्र त्यागना चाहिए या राजनीति से दूर रहना चाहिए। इस बयान ने राजनीतिक गलियारों में भूचाल ला दिया। खरगे ने यह भी कहा कि कुछ नेता साधु के वेश में रहकर मुख्यमंत्री बन गए हैं, जो लोगों के बीच नफरत फैला रहे हैं। यह भगवा पहनकर राजनीति (Politics in Saffron Attire) का मुद्दा अब राष्ट्रीय बहस का विषय बन गया है।

धर्मगुरुओं का प्रतिवाद जब धर्मगुरुओं ने इस विवाद पर अपनी राय रखी, तो मामले ने एक नया रूप ले लिया। जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने एक मजेदार अंदाज में पूछा कि क्या कहीं यह लिखा है कि गुंडों और लोफरों को ही राजनीति करनी चाहिए? उन्होंने कहा कि भगवा रंग तो भगवान का रंग है, और इसका राजनीति से पुराना नाता रहा है। रामभद्राचार्य ने छत्रपति शिवाजी महाराज का उदाहरण देते हुए बताया कि कैसे भगवा ध्वज ने पूरे महाराष्ट्र को एकजुट किया था।

राजनीतिक दांव-पेच धर्मगुरुओं का राजनीति में प्रवेश विवाद (Controversy Over Religious Leaders Entering Politics) अब महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति का अहम हिस्सा बन गया है। खरगे ने अपने बयान में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ओर इशारा करते हुए कहा कि एक तरफ भगवा वस्त्र पहनना और दूसरी तरफ ‘बटोगे तो कटोगे’ जैसी भाषा का इस्तेमाल करना कहां तक उचित है? यह बयान झारखंड की एक रैली में दिया गया, जहां उन्होंने कहा कि सच्चा योगी ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं करता।

लोकतांत्रिक मूल्यों की बहस इस विवाद ने भारतीय लोकतंत्र में धर्म और राजनीति के रिश्ते पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। कई विशेषज्ञों का मानना है कि लोकतंत्र में किसी भी वर्ग या समुदाय को राजनीति से दूर रखने की बात करना उचित नहीं है। वहीं कुछ का कहना है कि धार्मिक नेताओं को राजनीति में आने से पहले अपनी धार्मिक पहचान को अलग रखना चाहिए। यह बहस अब सोशल मीडिया पर भी जोर-शोर से चल रही है, जहां लोग अपने-अपने विचार रख रहे हैं।

चुनावी प्रभाव महाराष्ट्र के आगामी चुनावों में यह मुद्दा अहम भूमिका निभा सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद मतदाताओं के बीच धर्म और राजनीति के संबंध को लेकर एक नई बहस छेड़ सकता है। कुछ लोग इसे धर्म और राजनीति के बीच स्वस्थ संतुलन की जरूरत बता रहे हैं, जबकि अन्य इसे चुनावी रणनीति के तौर पर देख रहे हैं।

विभिन्न दृष्टिकोण इस मुद्दे पर समाज के विभिन्न वर्गों की अलग-अलग राय है। कुछ लोग मानते हैं कि धार्मिक नेताओं का राजनीति में आना लोकतंत्र को मजबूत बनाता है, जबकि दूसरे इसे धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा मानते हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस बहस को सकारात्मक दिशा में ले जाने की जरूरत है, जहां धर्म और राजनीति दोनों का सम्मान हो।

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