महाराष्ट्र में नगर निगम चुनावों से पहले सियासी माहौल गरमाया हुआ है। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे ने हिंदी को अनिवार्य बनाने के मुद्दे पर 6 अप्रैल को सर्वदलीय मार्च की घोषणा की है। इस घोषणा ने राज और उद्धव ठाकरे के एक मंच पर आने की अटकलों को हवा दी है। इस बीच, सीएम फडणवीस ने इस मुद्दे पर अपनी पहली प्रतिक्रिया दी है, जिसने सियासी गलियारों में हलचल मचा दी है।
फडणवीस का राज ठाकरे को खुला न्योता
लोकमत को दिए एक इंटरव्यू में मुख्यमंत्री फडणवीस ने राज ठाकरे को अपना अच्छा मित्र बताया। उन्होंने कहा कि महायुति गठबंधन में शिवसेना (शिंदे गुट) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार गुट) जैसे प्रमुख दल पहले से शामिल हैं। अगर कोई नया दल या पक्ष इस गठबंधन में शामिल होना चाहता है, तो उसका स्वागत है। फडणवीस ने साफ किया कि गठबंधन में शामिल होने का फैसला सामूहिक रूप से लिया जाएगा। उन्होंने ये भी जोड़ा, “महायुति का दरवाजा सभी के लिए खुला है।”
हिंदी-मराठी विवाद पर फडणवीस की दो टूक
राज ठाकरे के मराठी मोर्चे और हिंदी भाषा के मुद्दे पर फडणवीस ने कहा कि ये विवाद केवल चुनावी माहौल की वजह से उभरा है। उनके मुताबिक, अगर नगर निगम चुनाव नजदीक न होते, तो ये मुद्दा इतना तूल न पकड़ता। फडणवीस ने तंज कसते हुए कहा कि अगर राज और उद्धव ठाकरे के विचार एक जैसे होते, तो दोनों एक ही पार्टी में होते। उन्होंने जोर देकर कहा कि मराठी लोगों के हितों पर किसी एक दल या व्यक्ति का एकाधिकार नहीं हो सकता। मराठी और गैर-मराठी दोनों समुदाय महायुति के साथ हैं, और जनता विकास के आधार पर मतदान करती है।
बीएमसी मेयर पद पर महायुति का दावा
मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के मेयर पद को लेकर फडणवीस ने बड़ा बयान दिया। उन्होंने कहा कि पहले मेयर और उपमेयर पद छोड़ने का फैसला भावनात्मक था, जो उद्धव ठाकरे, एकनाथ शिंदे और अन्य नेताओं के कहने पर लिया गया था। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। फडणवीस ने स्पष्ट किया कि आगामी नगर निगम चुनावों में महायुति का मेयर बीएमसी पर काबिज होगा।
क्या नए समीकरण बनेंगे?
फडणवीस का ये बयान महाराष्ट्र की राजनीति में नए समीकरणों की ओर इशारा करता है। राज ठाकरे का सर्वदलीय मार्च और फडणवीस की खुली पेशकश से सियासी हलकों में चर्चाएं तेज हो गई हैं। क्या ठाकरे बंधु एकजुट होंगे, या महायुति गठबंधन में नए चेहरे शामिल होंगे? ये सवाल महाराष्ट्र की जनता और राजनीतिक विश्लेषकों के बीच कौतूहल का विषय बना हुआ है।
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