Moinuddin Chishti: ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का नाम भारतीय उपमहाद्वीप में सूफीवाद और मानवीय प्रेम के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। ईरान से आए इस महान सूफी संत ने न केवल भारत में आध्यात्मिकता का प्रचार किया, बल्कि अपने अनुयायियों के माध्यम से चिश्ती सिलसिले को पूरे भारत में फैलाया। आज उनकी दरगाह, जिसे गरीब नवाज के नाम से भी जाना जाता है, अजमेर में लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है।
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का जीवन और यात्रा
“ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती” (Moinuddin Chishti) का जन्म 1141 ईस्वी में ईरान के सिस्तान में हुआ था, जो वर्तमान में अफगानिस्तान की सीमा के पास स्थित है। बचपन में ही माता-पिता के देहांत के बाद वे अनाथ हो गए। कम उम्र में ही उन्होंने अपने सवालों और आध्यात्मिक जिज्ञासा के कारण ध्यान आकर्षित किया।
कहा जाता है कि उनकी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत एक फकीर, इब्राहिम कंदोजी से मुलाकात के बाद हुई। कंदोजी ने उन्हें “सत्य की तलाश” के लिए प्रेरित किया। इसके बाद ख्वाजा मोईनुद्दीन ने बुखारा और समरकंद जैसे ज्ञान के केंद्रों में दर्शन, अध्यात्म और भाषा का अध्ययन किया।
हेरात में उन्होंने ख्वाजा उस्मान हरूनी से दीक्षा ली, जो चिश्ती सिलसिले के प्रमुख संत थे। यहीं से उनके अध्यात्मिक जीवन की नींव मजबूत हुई और उन्होंने सूफीवाद का प्रचार करने का संकल्प लिया।
भारत में चिश्ती सिलसिले का आगमन
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अफगानिस्तान होते हुए भारत आए। पहले वे लाहौर पहुंचे, जहां अली हुजवीरी की दरगाह पर जाकर उन्होंने प्रार्थना की। इसके बाद उन्होंने दिल्ली और फिर अजमेर को अपनी आध्यात्मिक यात्रा का केंद्र बनाया।
अजमेर उस समय चौहान साम्राज्य की राजधानी थी और पृथ्वीराज तृतीय का शासन था। इस दौरान मोहम्मद गोरी ने तराइन के युद्ध (1192) में पृथ्वीराज को हराया। अजमेर की सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के बीच, ख्वाजा मोईनुद्दीन ने यहीं ठहरने और लोगों की सेवा करने का निर्णय लिया।
उन्होंने गरीबों, अनाथों और असहायों के लिए अपने दरवाजे हमेशा खुले रखे। उनकी करुणा और सेवा के कारण उन्हें “गरीब नवाज” की उपाधि मिली। उनके यहां चलने वाले लंगर में हर धर्म के लोग स्वागत पाते थे।
अजमेर दरगाह और सूफीवाद का प्रचार
“ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह” (Ajmer Dargah) आज भी भारत में धार्मिक सहिष्णुता और एकात्मता का प्रतीक मानी जाती है। इस दरगाह की नींव उन्होंने खुद एक साधारण मिट्टी के घर के रूप में रखी थी। यहां वे ध्यान, प्रार्थना और सेवा कार्यों में जुटे रहते थे।
चिश्ती सिलसिला, जो हेरात में शुरू हुआ था, ख्वाजा मोईनुद्दीन के प्रयासों से भारत में फैला। उनके प्रमुख शिष्य, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, ने दिल्ली में इस सिलसिले को आगे बढ़ाया। कुतुब मीनार का नाम भी उनके नाम पर रखा गया। इसी परंपरा में बाबा फरीद और निजामुद्दीन औलिया जैसे महान संत हुए, जिनकी दरगाहें आज भी श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र हैं।
मुगल काल में दरगाह का प्रभाव
मुगल शासक भी ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती से गहराई से प्रभावित थे। अकबर ने उनकी दरगाह पर कई बार हाजिरी दी और यहां लंगर और सुंदरीकरण कार्यों को बढ़ावा दिया। यहां आने वाले शासकों में हुमायूं, शेरशाह सूरी और औरंगजेब भी शामिल थे।
मुगल काल में अजमेर दरगाह व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का केंद्र बन गई। हर साल यहां उर्स (मेला) का आयोजन होता है, जहां लाखों श्रद्धालु उनकी शिक्षाओं को याद करते हैं और उनकी मजार पर श्रद्धा अर्पित करते हैं।
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की शिक्षाएं और विरासत
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने हमेशा मानवता, करुणा और समानता का संदेश दिया। उनकी शिक्षाएं इस्लाम के आध्यात्मिक पहलुओं पर आधारित थीं, जो सभी धर्मों के प्रति सम्मान और प्रेम की बात करती थीं।
उनकी शिक्षाएं बताती हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान केवल ध्यान और प्रार्थना से ही नहीं, बल्कि दूसरों की सेवा और भलाई से भी प्राप्त होता है। यही कारण है कि उनकी दरगाह हर धर्म, जाति और वर्ग के लोगों के लिए एक पवित्र स्थल है।