आजाद भारत के इतिहास में कुछ ऐसे काले पन्ने हैं, जिन्हें पढ़ते ही रूह कांप जाती है। निज़ाम के रज़ाकार (Nizam’s Razakars) उन पन्नों में से एक हैं, जिनका आतंक आज भी लोगों के दिलों में दहशत पैदा करता है। आइए जानते हैं इस खूनी इतिहास की पूरी कहानी।
रजाकारों का उदय और संगठन
निज़ाम के रज़ाकार (Nizam’s Razakars) की शुरुआत 1947 में हुई, जब हैदराबाद के आखिरी निजाम मीर उस्मान अली खान ने भारतीय संघ में शामिल होने से इनकार कर दिया। सैयद कासिम रजवी के नेतृत्व में इस सेना को विशेष अधिकार दिए गए। रजाकार शब्द का अरबी में अर्थ होता है ‘स्वयंसेवक’, लेकिन ये स्वयंसेवक दरअसल एक आतंकी संगठन में तब्दील हो गए। उनकी संख्या लगभग दो लाख तक पहुंच गई थी और उन्हें निजाम की तरफ से हथियार और प्रशिक्षण दिया जाता था।
आतंक का दौर और जुल्म
रजाकारों ने अपने आतंक के दौर में किसी को नहीं बख्शा। वे गांव-गांव जाकर लूटपाट करते, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करते और जो भी भारत समर्थक दिखता, उसे मौत के घाट उतार देते। मराठवाड़ा क्षेत्र में इनका आतंक सबसे ज्यादा था। वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के परिवार पर भी इन्होंने हमला किया था। खरगे जी के गांव वरवट्टी में रजाकारों ने उनके घर को आग लगा दी, जिसमें उनकी मां और बहन समेत कई परिवार के सदस्य जिंदा जल गए।
हैदराबाद का भारत में विलय संघर्ष (Hyderabad’s Integration Struggle) एक बेहद दर्दनाक दौर था। रजाकार सिर्फ हिंदुओं को ही नहीं, बल्कि उन मुस्लिमों को भी निशाना बनाते थे जो भारत में विलय के पक्ष में थे। उनका मानना था कि हैदराबाद को एक स्वतंत्र मुस्लिम राज्य के रूप में रहना चाहिए। वे स्कूलों में जाकर तिरंगा फहराने वाले छात्रों को पीटते, दुकानदारों को धमकाते और किसानों की फसलें जला देते थे।
ऑपरेशन पोलो और रजाकारों का अंत
जब स्थिति बेकाबू होती जा रही थी, तब तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने कड़ा कदम उठाने का फैसला किया। 13 सितंबर 1948 को ऑपरेशन पोलो की शुरुआत हुई। भारतीय सेना ने मेजर जनरल जे.एन. चौधरी के नेतृत्व में यह ऑपरेशन चलाया। सेना ने पहले दिन ही नलगोंडा और सूर्यापेट को मुक्त करा लिया। दूसरे दिन औरंगाबाद और जालना पर कब्जा कर लिया।
17 सितंबर तक आते-आते रजाकारों की ताकत पूरी तरह कुचल दी गई। निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया और हैदराबाद राज्य का भारत में विलय हो गया। इस ऑपरेशन में लगभग 800 रजाकार मारे गए और हजारों को गिरफ्तार कर लिया गया। कासिम रजवी पाकिस्तान भाग गया, जहां उसने अपनी जिंदगी के आखिरी दिन बिताए।
आज का प्रभाव और याद
आज भी मराठवाड़ा और तेलंगाना के कई इलाकों में रजाकारों के आतंक की कहानियां सुनाई जाती हैं। कई परिवारों ने अपने प्रियजनों को खोया और उनके घरों को लूटा गया। यह घटनाएं भारतीय इतिहास में एक ऐसा अध्याय हैं, जो हमें याद दिलाता है कि आजादी की लड़ाई में कितनी कुर्बानियां दी गईं। आज जब महाराष्ट्र में यह मुद्दा उठता है, तो वह सिर्फ इतिहास की याद नहीं, बल्कि उन हजारों लोगों की पीड़ा का प्रतीक है, जिन्होंने इस दौर में अपनी जान गंवाई या अपनों को खोया।